बिनोद कुमार की फेसबुक वाल से…
लोकप्रिय जनभावनाओं के खिलाफ लिखते-बोलते मुझे कई बार घबराहट होने लगती है। लेकिन पाखंड बर्दाश्त भी नहीं होता। कल जब रात में रबीश कुमार अपने वीडियों में रतन टाटा की महानता को याद कर रहे थे, उस समय मेरी आंखों के सामने तैरने लगा ओड़ीसा के कलिंगनगर में 2006 में हुआ वह हत्याकांड जिसमें टाटा कंपनी के बनने वाले दीवार को रोकने के क्रम में निरीह आदिवासियों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। इस कांड में 12 आदिवासी मारे गये थे और 35-40 बुरी तरह घायल हुए थे। मृतकों के शवों को जब परिजनों को सौंपा गया तो कई के पंजे कलाई तक गायब थे।
वह 2 जनवरी 2006 का दिन था। एक दिन पहले जब दुनिया नये साल का जश्न मनाने में डूबी हुई थी, ओड़ीसा पुलिस और अफसरान अगली सुबह आदिवासियों के सामूहिक आखेट की तैयारी कर रहे थे। कलिंगनगर के आसपास के ग्रामीण इलाकों में पुलिस के प्लाटून गश्त लगने लगे थे और दो जनवरी की सुबह अंधेरे टाटा कंपनी के भवन के सामने पुलिस के नौ-दस प्लाटून आधुनिकतम हथियारों के साथ इकट्ठा हो गयेथे। उनके संरक्षण में पांच डोजर भी खड़ा कर दिये गये थे।
जिस जगह पर यह आखेट हुआ, वह जगह नुआगांव कहलाता है। गांव के सामने विस्तृत मैदान, उसके बाद ढलान और एक कृशकाय नदी, जिसमें बरसात में ही पानी दिखायी देती है। उसके बाद उठान, जो आगे जाकर एक प्रमुख सड़क से मिलती है। उसी सड़क के किनारे एक चारदीवारी के अंदर था टाटा कंपनी का कामचलाऊ प्रशासनिक भवन। उसके चारों तरफ विस्तृत खेतिहर जमीन। उस क्षेत्र विशेष के उत्तर में है क्योंझर जिला का दैतारी प्रखंड। पूरब में जाजपुर जिला, रेलवे स्टेशन और बाजार। दक्षिण में चंडीकुल बाजार, जो बड़कागांव कटक मुख्यमार्ग के विशाल हाइवे के नीचे अवस्थित है। उसी दिशा में दिखता है बड़ासुरी पहाड़। दतारी और जाजपुर रोड के बीच थी दस हजार एकड़ विवादित जमीन। करीब में दतारी की तरफ है जिंदल का नीलांचाल इस्पात, कोणार्क और कोकोलेन कारखाना। पूरब में बहती है ब्राह्मणी नदी। ब्राह्मणी नदी छतीसगढ़ और झारखंड से निकली शंख और कोयल नदी से मिलकर बनी है। उसी मिलन स्थल पर है राउरकेला।
करीब दस बजे पुलिस के संरक्षण में डोजरिंग शुरू हुआ। भीमकाय मशीनों की आवाज सुन लोग अपने घरों से निकल पड़े। उन्हें इस बात का अंदेशा तो था, लेकिन ऐसा 2 जनवरी को होगा, यह अनुमान नहीं था। उस दिन मौके पर उपस्थित लांडू बिरवा कहते हैं- लोग चंपा कोइला गांव की तरफ से विरोध के लिए निकले। चूंकि पूर्व में पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों से बात-चीत होती रही थी, इसलिए कुछ लोग बातचीत की नीयत से उनकी तरफ बढ़े। क्यों हो रहा है डोजरिंग?
लेकिन वे कुछ पूछते, बात करते, इसके पहले ही बिल्कुल करीब से उनमें से कुछ को गोली मार दो गयी। पहली खेप में पुलिस की गोलियों के शिकार वही लोग थे, जो बातचीत के लिए उनकी तरफ बढ़े थे। चार लोगों को गोली लगी। वे चार थे मुकुंदा बाकिरा, लांडू जरिका, भगवान साय और सुदाम बारला। उनके घायल होकर गिरने के बाद पुलिस के जवान करीब पहुंचे और उन्हें कुंदों से भी पीटने लगे। उसके बाद तो अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो गयी। उसके साथ आंसू गैस के गोले और जहां-तहां दबाकर रखे गये माइंस फट पड़े। चारो तरफ धुआं ही धुआं। घायलों को उठाने के लिए आगे बढ़ने वालों पर भी फायरिंग। यह सिलसिला ढाई-तीन घंटे तक चलता रहा। देखते देखते कोहराम मच गया। लोग भागे लेकिन अंधाधुंध फायरिंग चलती रही। बीच-बीच में इधर से भी पथराव हुआ, तीर चले लेकिन पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच काफी दूरी थी। इसलिए पुलिस को कोई खास क्षति नहीं हुई। सिर्फ एक पुलिसकर्मी घिर जाने पर कुद्ध भीड़ के आक्रोश का शिकार हुआ।
कुल बारह आदिवासी मारे गये और एक पुलिसकर्मी। गालियों के शिकार छह लोगों को पुलिस अपने साथ ले गयी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस वक्त तक वे मरे नहीं थे। बाद में उनके शव उनके परिजनों को सौंपे गये लेकिन उनके हाथ कलाई तक कट हुए थे। उनके नाम है – भगवान सोय, लांडू जारिका, आटी जामुदा, मुकुंदा बाकिरा, रामो गगराई और बोना बोदरा। 35 घायलों को उठाकर ग्रामीण कटक अस्पताल ले गये। ऐसे आदिवासी स्त्री-पुरुषों की संख्या भी काफी थी, जिन्हें कुंदों से पीटा गया था। तत्काल वे अस्पताल नहीं गये, लेकिन दो-चार दिन बाद वे इलाज के लिए अस्पताल पहुंचे।
2 जनवरी को फायरिंग हुई, डोजरिंग ठप हो गयी। दिन के तीन बजे तक तो डोजर मशीनें और पटनायक सरकार की वीर बांकुड़ी पुलिस भी घटना स्थल से गायब हो चुकी थी। रह गया तो सिर्फ रुदन शोक और आक्रोश! सोमारी आलडा कहती हैं – हम यदि एकजुट होकर आंदोलन जारी रखें तो हमें कोई झुका नहीं सकता। हम संविधान में बदलाव चाहते हैं। ऐसा कानून चाहते हैं, जिससे किसान को अपनी जमीन से नहीं उठना पड़े।
कलिंग संघर्ष 3 जनवरी के अखबारों की सुर्खी बना और उतर गया। जितनी खबर आयो, उसमें यह भ्रम और संदेह भी शामिल करने की कोशिश हुई कि विकास के लिए प्रतिबद्ध ‘टाटा कंपनी’ वैधानिक कानूनों के तहत अपना निर्माण कार्य करने पहुंची थी। लेकिन आदिवासियों ने हमला किया और एक पुलिसकर्मी को मार डाला। इसके बाद हुई पुलिस फायरिंग हुई। यांनी जमीन छीनने के लिए मारने वाला निर्दोष और अपनी जमीन का छिनने से बचाने के लिए जान देने वाला समाज हमलावर !
लेकिन घटनास्थल के मुआयने, परिस्थितिजन्य साक्ष्य और ग्रामीणों के बयान से यह तथ्य खुलता है कि पुलिस-प्रशासन उद्वेलित आदिवासी समाज को सबक सिखाने की पूरी तैयारी करके वहां गया था। यह बात तो अब वहां के निलंबित पुलिस अधिकारी भी स्वीकार कर चुके हैं कि आदिवासियों पर पहले पुलिस ने हमला किया। कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी इस बात को चीख-चीख कर कहते हैं कि सरकार के इस अभियान में आदिवासियों को कीड़े मकोड़े समझने का भाव छलक पड़ा था।
जिन छह घायलों को पुलिस इलाज के लिए ले गयी, वे मौत के शिकार हुए, जबकि जिन्हें आंदोलनकारी स्वयं कटक अस्पताल लेकर गये, उनमें से सबके सब जीवित बच गये। अस्पताल में भर्ती 35 घायलों में से 17 के शरीर में गोलियां धंसी थीं। एक बालक के गले में तो 9 जनवरी तक गोली धंसी रही।
पुलिस फायरिंग में आधुनिकतम अस्त्रों का इस्तेमाल किया गया। 303 नहीं, एसएलआर, लाइट मशीनगन जैसे हथियार। घायलों में से अधिसंख्य की पीठ पर गोली लगी थी। पीठ से घुसी गोली अस्पताल में आगे से चीरकर निकाली गयी। इसका अर्थ यह हुआ कि लोग घटनास्थल से काफी दूर थे या भाग रहे थे, न कि करीब से हमला कर रहे थे। उन्हें खदेड़ते हुए गोली मारी गयी।
पुलिस जिन छह घायलों को अपने साथ ले गयी और बाद में जिनको शव के रूप में ग्रामीणों के हवाले किया, उनके शरीर पर मार-पीट के निशान पाये गये। यही नहीं, उनके पंजे कटे हुए थे। पुलिस-प्रशासन और चिकित्सकों के पास इस सवाल का कोई युक्तिसंगत जवाब नहीं है कि इस पाशविक कृत्य का मकसद क्या है? आरोप तो यह है कि जिन घायलों को पुलिस अपने साथ ले गयी, उन्हें तरह-तरह की यातना देकर मार डाला और अंग भंग कर उनके शवों को लौटाया। मकसद यह कि झारखंड से उस क्षेत्र में गये आदिवासियों को ऐसा सबक सिखायें कि वे दुबारा ओड़िसा के औद्योगिक विकास का विरोध करने का साहस नहीं कर सकें। दबे स्वर में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि उंगलियों के निशान लेने के लिए हाथ कांटे गये।
लेकिन आदिवासी समाज हाथ काटने का अर्थ ज्यादा अच्छी तरह समझता है। वह जानता है कि यह उसकी सांस्कृतिक परंपरा को ध्वस्त करने की वैसी ही प्रक्रिया है, जैसी ब्रिटिश हुकूमत ने अपनायी थी। यहां के आदिवासी समाज में अंत्येष्टि के वक्त का एक विधान यह है कि गांव-घर का बुजुर्ग मृतक की हथेली में धान रखता है और इस कामना के साथ अपने हाथ में ले लेता है कि मृतात्मा गांव की समृद्धि का आशीष सौंपकर जा रहा है। आशीष के प्रतीक रूप धान को घर में सहेजकर रखा जाता है। पुलिस ने मृतकों के हाथ काटकर आदिवासी समाज की इसी सांस्कृतिक परंपरा पर चोट की।
जिस दस हजार एकड़ जमीन पर सरकार अपना दावा पेश कर रही है, वह बंजर या परतो जमीन नहीं है। उस पर आदिवासी सैकड़ों वर्षों से खेती करते आ रहे हैं। यह जमीन उन्होंने अपने पुरखों की हड्डी और अपने खून-पसीने से खेती के लायक बनायो है, आबाद की है। यह बात बेमानी है कि उस जमीन का सरकारी पट्टा उनके पास है या नहीं।
घटना के बाद ग्रामीणों ने उस क्षेत्र की नाकेबंदी कर दी। कलिंग नगर में प्रवेश करने वाली मुख्य सड़क की कई जगहों पर काट दिया गया। किनारे के पेड़ काटकर गिरा दिये गये। प्रशासन पुलिस के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी। आंदोलन से सहानुभूति रखने वालों, मीडियाकर्मियों और राजनीतिक दलों के नेताओं को प्रवेश की छूट है। विस्थापन विरोधी जनमंच, सुकिंदा एरिया कमेटी के अध्यक्ष चक्रधर हाईबुरू के घर के पास सामूहिक भोजन बन रहा है। वहां दिन-रात सैकड़ों की संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे जमे रहते हैं। आने-जाने वाले लोगों पर नजर रखी जाती है। चक्रधर हाईबुरू कहते हैं ‘जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होती, तब तक नाकेबंदी जारी रहेगी।’
आंदोलनकारियों की मुख्य मांग है टाटा कंपनी एवं अन्य बहुदेशीय निजी कंपनियां उस क्षेत्र से जायें। आदिवासी अपनी जमीन किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे। घटना के लिए जिम्मेदार मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और उनके वित्त मंत्री प्रफुल्ल घरई के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हो।
(यह रिपोर्ट उस सक्षिप्त पुस्तक का अंश है जिसे घटना के बाद हमने लिखी थी। कल उस कांड के कारणों की हम चर्चा करेंगे।)
तस्वीर साथी Ratan Tirkey के वाल से। यह उन बारह मृत आदिवासियों के अंतिम संस्कार का फोटो है जो टाटा कंपनी के बिजनेस साम्राज्य का विरोध करते शहीद हो गये।