क्यों बार-बार जीत जाते हैं नीतीश कुमार? बिहार की सियासत में ‘नीतीश फैक्टर’ की असली ताकत क्या है

14th November 2025



ULGULAN ANALYSIS 

बिहार में अब सबसे बड़ा सवाल यही है- आख़िर नीतीश कुमार को इतना अपराजेय क्या बनाता है? 25 से अधिक वर्षों की राजनीतिक यात्रा, विकासवादी छवि, महिलाओं का मजबूत समर्थन और गठबंधन राजनीति की अनूठी समझ… यही वे परतें हैं जो हर चुनाव में उन्हें चर्चा के केंद्र में ला खड़ा करती हैं। इस बार भी शुरुआती रुझानों ने वही संकेत दिए, जेडीयू 70 से ज़्यादा सीटों पर बढ़त में नज़र आई और नीतीश फिर सुर्खियों में।

बिहार विधानसभा चुनाव में रुझान आते ही एक बार फिर वही बहस तेज हो गई है- क्या नीतीश कुमार की राजनीतिक समझदारी और अनुभव इस चुनाव में भी उनके लिए जीत की चाबी बन जाएगा? शुरुआती गिनती में ही जेडीयू 73 सीटों पर आगे दिखी, जो यह साफ करता है कि नीतीश अभी भी बिहार की चुनावी हवा को पढ़ने की क्षमता रखते हैं।

NDA का भरोसा: नीतीश इज़ द सेंटर ऑफ ग्रैविटी

एनडीए अपनी जीत की उम्मीद तीन बड़े आधारों पर टिकाए बैठा है,

1. नीतीश कुमार की राजनीतिक पूंजी
दो दशक से ज्यादा समय से बिहार की राजनीति में नीतीश की पकड़ कायम है। आलोचनाओं और गठबंधन बदलने के बावजूद, उनकी “गवर्नेंस ब्रांडिंग” उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक संपत्ति बनी हुई है। यह चुनाव भी उनके लिए परीक्षा का मंच है- क्या वे गठबंधन के भीतर अपनी सर्वोच्चता बनाए रख पाएंगे?

2. महिलाओं का वोट बैंक

मुक्यमंत्री महिला रोजगार योजना, जो जीविका समूहों के जरिए लागू हुई, ने ग्रामीण महिलाओं के बीच मजबूत विश्वास का आधार तैयार किया है। पिछले चुनावों की तरह इस बार भी ये वोट फैसला बदलने की शक्ति रखते हैं। एनडीए का मानना है कि महिलाओं का यह भरोसा एक बार फिर बाज़ी पलट सकता है।

3. जातिगत समीकरण का नया कॉम्बिनेशन
चिराग पासवान की एलजेपी (राम विलास) और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम की वापसी ने एनडीए की सामाजिक चौहद्दी को चौड़ा किया है। खासकर चिराग की परफॉर्मेंस को लेकर गठबंधन में बड़ी उम्मीदें हैं क्योंकि उनका वोट पैकेट कई सीटों पर निर्णायक साबित हो सकता है। इन रिपोर्ट के लिखने तक वे 23 सीटों पर बढ़त बनाये हुए थे।

क्या तेजस्वी नया सामाजिक समीकरण बना पाएंगे?

महागठबंधन की रणनीति अपने पारंपरिक मुस्लिम–यादव आधार से आगे बढ़ने की रही है। वीआईपी और नई राजनीतिक इकाई IIP को साथ लेना उसी दिशा में एक प्रयास है, नदी किनारे बसने वाले समुदायों और ईबीसी समूहों को जोड़ने की कोशिश।

तेजस्वी यादव की युवा अपील, रैलियों में ऊर्जा और बेरोजगारी-केंद्रित नैरेटिव उन्हें नीतीश के अनुभव के मुकाबले एक “विकल्प” बनाता जरूर है, लेकिन चुनाव की असली लड़ाई इस पर टिकी है कि क्या उनका विस्तृत सामाजिक गठजोड़ वोटों में तब्दील हो पाएगा।

कांग्रेस की उम्मीदें कम हैं, पर इतना चाहती है कि नंबर अच्छे आएं ताकि गठबंधन में उसकी प्रासंगिकता बनी रहे। वहीं प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी इस चुनाव में “वोट शेयर फैक्टर” बन सकती है। सीटें कम हों, लेकिन वोटों का झुकाव कई कॉन्टेस्ट को पलट सकता है।

सबसे बड़ा सवाल

जब मतगणना पूरी होगी, जीत किसकी होगी यह साफ हो जाएगा, पर एक बात पहले ही तय दिख रही है—बिहार की राजनीति आज भी दो नावों पर टिकी है:
एक तरफ नीतीश का अनुभव और संतुलित नेतृत्व, दूसरी तरफ तेजस्वी की ऊर्जा और नया सामाजिक नैरेटिव। और इसी द्वंद्व के बीच बार-बार उठने वाला सवाल फिर लौट आया है—
क्या नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में अभी भी सबसे असरदार ताकत हैं?

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