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असम सरकार ने एक नए कानून की घोषणा की है जिसे विश्लेषक मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने वाला कदम मान रहे हैं। प्रस्तावित कानून को “एंटी-लव जिहाद” उपाय बताया गया है, जिसमें शादी के ज़रिए ज़बरन धर्म परिवर्तन पर उम्रकैद तक की सज़ा और आरोपी पुरुष के माता-पिता की गिरफ्तारी का प्रावधान है।
आलोचकों का कहना है कि यह कानून मुस्लिम पुरुषों को “शिकारी” और हिंदू महिलाओं को “शिकार” के रूप में दिखाने की कोशिश है — जिससे राज्य की पहले से नाजुक सांप्रदायिक एकता और टूट सकती है।
trtworld.com के एक रपट के अनुसार, 22 अक्टूबर को की गई इस घोषणा में ‘लव जिहाद’ बिल को दो अन्य विधेयकों — बहुविवाह और चाय बागान जनजातियों की ज़मीन संबंधी अधिकारों — के साथ जोड़ा गया है। पर सबसे तीखी बहस पहले विधेयक को लेकर है।
मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा, इसे “ऐतिहासिक” बताते हुए “सामाजिक सौहार्द की रक्षा” का कदम बता रहे हैं। मगर विशेषज्ञों के अनुसार, असम के 34 प्रतिशत मुस्लिमों को “स्वदेशी अस्मिता” के ख़तरे के रूप में दिखाने की यह राजनीति कोई नई नहीं।
राज्य में 2026 के चुनाव करीब हैं, और विश्लेषक मानते हैं कि इस कानून का असली मकसद ध्रुवीकरण बढ़ाना और बाढ़ जैसी वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाना है।
कांग्रेस नेता अमन वदूद का कहना है, “पूरा कानून झूठे हिंदुत्व नैरेटिव पर टिका है। ये शब्दावली ही अस्पष्ट है — ‘लव जिहाद’ जैसी कोई कानूनी परिभाषा नहीं है।”
उत्तर प्रदेश की 2020 की ‘धर्म परिवर्तन निषेध’ अधिनियम जैसी नीतियों से प्रेरित इस प्रस्ताव में असम ने और कठोर प्रावधान जोड़े हैं — उम्रकैद और माता-पिता की गिरफ्तारी तक। वदूद कहते हैं, “ज़बरन धर्म परिवर्तन की अलग-अलग घटनाओं से निपटने के लिए पहले से ही पर्याप्त कानून मौजूद हैं। चुनावी मौसम में ऐसे विभाजनकारी क़ानूनों की ज़रूरत नहीं।”
trtworld.com की रिपोर्ट में कहा गया है, बीजेपी-शासित राज्यों के आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम पुरुषों द्वारा हिंदू महिलाओं से शादी के मामलों में वृद्धि का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। असम के मिश्रित जिलों — जहां हिंदू, मुस्लिम और जनजातीय समुदाय साथ रहते आए हैं — में यह कानून अविश्वास और विभाजन को और गहरा कर सकता है।
वदूद साफ़ कहते हैं, “इस कानून का निशाना केवल एक समुदाय है।”
पुरानी बोतल में नई शराब
“लव जिहाद” का विचार नया नहीं है — यह वही पुराना मिथक है जिसमें कहा जाता है कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं को शादी के बहाने धर्म परिवर्तन के लिए फुसलाते हैं।
ओडिशा की XIM यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नदिरा खातून कहती हैं कि असम का यह कदम “पहले से चले आ रहे एंटी-कन्वर्ज़न कानूनों की कड़ी” है।
उनके अनुसार, “लव जिहाद का पूरा विमर्श दक्षिणपंथी प्रोपेगैंडा है, जो ‘हम बनाम वे’ की सोच को और मज़बूत करता है।”
वो कहती हैं कि इस तरह के कानून निजी रिश्तों को राज्य की निगरानी और सज़ा के दायरे में लाते हैं, और मुसलमानों को “संस्कृतिक अन्य” के रूप में चिन्हित करते हैं।
खातून बताती हैं कि बीफ़ प्रतिबंध, हिजाब बैन और संपत्ति कानूनों जैसी नीतियाँ मिलकर मुसलमानों की पहचान और गरिमा को निशाना बनाती हैं।
असम की राजनीति और अस्मिता
असम के संदर्भ में इस कानून का समय बेहद अहम है। मुख्यमंत्री सरमा की बयानबाज़ी में “असमिया अस्मिता” और “हिंदुत्व” का घालमेल है, जिसे खातून “बहिष्कारी जनवाद” कहती हैं।
वो कहती हैं, “यह कानून मानसिक हिंसा और भय का वातावरण बनाता है, जहां महिला शरीर को राष्ट्रवादी भावनाओं के उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जाता है — ‘उनसे’ बचाने के प्रतीक के रूप में।”
इतिहास गवाह है कि ऐसी राजनीति के नतीजे भयानक रहे हैं — 1980 के दशक के सिख विरोधी आंदोलन से लेकर असम के 1979-85 के एंटी-इमिग्रेशन आंदोलन तक, जिसने 1983 के नेल्ली नरसंहार को जन्म दिया, जिसमें दो हज़ार से ज़्यादा मुस्लिम मारे गए थे।
“एक समुदाय को दूसरे से डराने की राजनीति”
जेएनयू के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आमिर अली कहते हैं कि “लव जिहाद” की अवधारणा “मूर्खतापूर्ण और झूठी” है।
उनके मुताबिक, “बीजेपी इस नैरेटिव का इस्तेमाल कई राज्यों में कर चुकी है, जिसमें युवा मुस्लिम पुरुषों को अति कामुक, चालाक और हिंदू महिलाओं को फँसाने वाला दिखाया जाता है — जबकि ऐसा कोई ठोस डेटा मौजूद नहीं है।”
अली कहते हैं, “ऐसे कानून बताते हैं कि भारत की राजनीति कितनी दिशा विहीन और मुसलमानों के प्रति कितनी शत्रुतापूर्ण हो गई है।”
मुख्यमंत्री सरमा की “घृणास्पद बयानबाज़ी” ने मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में दिखाने का माहौल बनाया है — जहाँ उन्हें मकान, शिक्षा, रोज़गार और बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।
उनके अनुसार, “भारत में हिंदू-मुस्लिम विश्वास की डोर अब अपने न्यूनतम स्तर पर है।” वो कहते हैं, “आज मुसलमानों को हर रोज़ किसी न किसी ‘जिहाद’ — जैसे ‘फ्लड जिहाद’, ‘स्पिट जिहाद’ -के आरोपों से जोड़ा जा रहा है। ये सब नफ़रत को सामान्य बनाने की रणनीति है।”
2026 के चुनाव से पहले बीजेपी इस ध्रुवीकरण को और भुनाने की कोशिश में है — “न्याय बनाम तुष्टिकरण” के नारे के साथ।




