Ashish Kumar Singh
जियो हॉटस्टार पर 12 Dec. को रिलीज़ हो रही ‘द ग्रेट शमसुद्दीन फैमिली’ हिंदी सिनेमा का एक नया धरातल है। ‘स्लाइस-ऑफ-लाइफ़’ से आगे बढ़कर यह फिल्म ‘दिमाग़ को किनारे रखे बगैर’ गुदगुदाने वाला मनोरंजन तो देती ही है—सही नीयत से, वास्तविकता लिये, जरूरी सवालों को बिना किसी लाउडनेस के उठा जाती है।
एक लंबे-चौड़े कुनबे में तरह-तरह के किरदार और उनके आपसी टकराव, नोक-झोंक के बीच जेनेरेशन गैप के तंज़-ताने, रिश्तेदारों के निंदा-रस का आनंद और कज़िन camaraderie… सब मिलकर एक ऐसा माहौल रचते हैं जिसे महानगरों में रहने वाले हम लोग पुरानी यादों या फिर रिश्तेदारी की शादियों की जमघट, अड्डेबाजियों में ढूंढते रहते हैं। रिश्तों की नोंक-झोंक, खींच-तान और चुहलबाज़ी के खूबसूरत सिनेमाई पल लगातार एंगेज करते हैं, हंसाते हैं… लेकिन फिल्म सिर्फ इतनी भर नहीं है…।
फिल्म की कहानी इसके मुख्य चरित्र बानी (कृतिका कामरा) से शुरू होकर धीरे-धीरे पूरे कुनबे की दुनिया में ले जाती है—जहाँ अलग-अलग कारणों से मज़ेदार दिखते हर किरदार की ज़िंदगी में असल क्राइसिस भी बताती है… और उनमें से कई की ज़िंदगी को अलग-अलग तरह से छूते समाज की असलियत और उससे जुड़े बड़े सवालों से भी रू-ब-रू कराती है। बानी की क्राइसिस जो एक दिन की लगती है, उसका वजूद उससे कहीं बड़ा है…। और यही इस फिल्म के कैनवस को और व्यापक बना देता है।
फिल्म के किरदार और कुछ मोमेंट्स इस कदर सच्चे और वास्तविक हैं कि वे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपने घर और आसपास बड़ी आसानी से मिल जाएंगे। इस लिहाज़ से स्क्रीनप्ले, निर्देशन और कास्टिंग—तीनों काबिले तारीफ है।
अनूशा रिज़वी ने पीपली लाइव के 15 साल बाद ओटीटी पर बेहतरीन वापसी की है—गंभीरता, संवेदनशीलता और मास अपील के शानदार संतुलन के साथ।
एंटरटेनमेंट की शर्त से बगैर समझौता किए। भारतीय ओटीटी दर्शकों के लिए ऐसी फिल्मों की आज बहुत ज़रूरत है। खासतौर पर उन दर्शकों के लिए जो ‘न्यू बॉलीवुड’ में कंटेंट की कमी होने की वजह से सैयारा, एनीमल, धुरंधर जैसी फिल्मों के पालों में बिखर गए हैं।
बृज नारायण ‘चकबस्त’ की लाइनें ‘बुलबुल को गुल मुबारक, गुल को चमन मुबारक…’ को खूबसूरती से सलाम करती यह फिल्म आज के दौर की, आज के सिनेमा की एक नई ‘गर्म हवा’ है।

