Alok Gagdekar
जब भी मैं अपने गाँव छारानगर, अहमदाबाद जाता था, एक घर ऐसा था जिसकी दहलीज़ पार किए बिना मेरी यात्रा पूरी नहीं होती थी। उसी घर में पचहत्तर साल पुराना धर्मेन्द्र जी से जुड़ा एक किस्सा हमेशा मेरा इंतज़ार करता मिलता था। इस किस्से का जन्म उस समय हुआ था, जब 2006 में मेरा चयन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हुआ। पूरे गाँव में यह बात फैल गई कि हमारे गाँव का एक लड़का फिल्मी दुनिया में जा रहा है। मैंने तब भी और आज भी, फिल्म और रंगमंच के फर्क पर कोई लंबा भाषण देना ज़रूरी नहीं समझा।
अब किस्सा शुरू होता है, गजेन्द्र ‘तमंचे’ से।
वे रिश्ते में मेरी मां के दूर के चाचा और मेरे नाना हुए। अपने ज़माने में गाँव के सबसे हैंडसम, सबसे सेक्स-अपीलिंग नौजवान। फिल्मों का ऐसा शौक कि अहमदाबाद के रोडा के मशहूर गैलेक्सी सिनेमा के मालिक से उनकी दोस्ती थी—60 के दशक में यह किसी चमत्कार से कम नहीं था।
गैलेक्सी के मैनेजर चंद्रू ने उनकी कद-काठी देखकर सलाह दी कि फिल्मों में किस्मत आज़माएं। फोटोशूट हुआ। तस्वीरें शानदार आईं। तभी देश के कोने-कोने से नौजवान बंबई जाकर दिलीप कुमार बनने के सपने में डूबे रहते थे—गजेन्द्र तमंचे भी उनमें शामिल हो गए।
संयोग देखिए, चंद्रू के सिंधी मित्र अर्जुन हिंगराणी बंबई में एक कम बजट की फिल्म बना रहे थे: “दिल भी तेरा, हम भी तेरे”। उन्हें ऐसा हीरो चाहिए था जो बेहद सुंदर हो, अभिनय भले औसत हो और पैसे की मांग न करे। गजेन्द्र तमंचे की तस्वीरें उन्हें पसंद आ गईं और वहीं अशोक की भूमिका के लिए उन्हें आज की भाषा में कहें तो “लॉक” कर लिया गया। यह खबर छारानगर पहुँची तो पूरे गाँव में जैसे त्योहार सा माहौल बन गया।
मिठाइयाँ, फूल-मालाएँ, दावतें—हर तरफ खुशी। गजेन्द्र तमंचे के कानों में भी मानो “गाड़ी बुला रही है” बजने लगा था।
लेकिन तभी, रेड सिग्नल।
उनके ससुराल वालों को पता चला कि दामाद बंबई हीरो बनने जा रहा है। उन्होंने बेटी से कहा, “वहाँ जाकर दूसरी औरत करना आम बात है… मर्द हाथ से निकल जाएगा।”
नई-नवेली दुल्हन घबरा गई। विरह था या डर, पता नहीं, पर गजेन्द्र तमंचे को बंबई जाने से मना करना पड़ा। और उस फिल्म में वह भूमिका निभाई—धर्मेन्द्र ने।
यह वही किस्सा था जिसे एक बुज़ुर्ग ने मुझे सुनाया था, मेरे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में चयन पर मेरा हौसला बढ़ाने के लिए। गजेन्द्र नाना के निधन को पच्चीस बरस हो चुके हैं, पर जब भी उनके परिवार से मिलता था, यह किस्सा ज़रूर याद आता था। आज धर्मेन्द्र जी के निधन ने उस स्मृति को फिर जगा दिया—एक अमर स्मरण की तरह।
और साथ ही याद आई मोहन राकेश की पंक्ति-
“विलोम क्या है–एक असफल कालिदास
और
कालिदास क्या है–एक सफल विलोम।”
(लेखक के बारे में: Alok Gagdekar अभिनेता हैं, NSD से हैं और मुंबई में रहते हैं। समय-समय पर सिनेमा पर गंभीर टिप्पणी करते रहते हैं)

