पटना
बिहार की राजनीति में एक बार फिर उबाल है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी का गांधी मैदान में कार्यकर्ताओं संग रात बिताने का रणनीतिक प्लान प्रशासनिक अड़चनों के चलते धराशायी हो गया। पार्टी ने ऐलान किया था कि 31 अगस्त की रात राहुल खुले मैदान में कार्यकर्ताओं के साथ रहेंगे, ताकि ‘वोटर अधिकार यात्रा’ को ताकत मिले और जनसंपर्क का सीधा संदेश जाए। मगर प्रशासन ने सुरक्षा कारणों का हवाला देकर इस कार्यक्रम को मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया।
कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा रहा है। नतीजतन, राहुल गांधी को अपना शेड्यूल बदलना पड़ा और वे 30 अगस्त की शाम ही दिल्ली लौट गए। अब वे केवल 1 सितंबर को पटना आएंगे, जहां वे समापन मार्च में भाग लेंगे।
कांग्रेस की योजना काफी विस्तृत थी। पार्टी चाहती थी कि राहुल गांधी मैदान में रात गुज़ार कर यह दिखाएं कि वे ज़मीनी संघर्ष से पीछे नहीं हटेंगे। मगर प्रशासन पहले ही साफ कर चुका था कि गांधी मैदान पर सरकारी नियंत्रण रहेगा। इसी कारण 1 सितंबर की प्रस्तावित रैली के लिए भी कांग्रेस को अनुमति नहीं मिल पाई, क्योंकि मैदान 30 अगस्त तक सरकारी आयोजनों के लिए आरक्षित बताया गया।
पार्टी ने एहतियातन कई होटल पहले ही बुक करा लिए थे, जो अब दिल्ली और अन्य राज्यों से आने वाले महागठबंधन नेताओं के ठहरने के काम आएंगे। लेकिन जो छवि कांग्रेस बनाना चाहती थी — एक संघर्षशील राहुल गांधी, कार्यकर्ताओं संग ज़मीन पर रात गुज़ारते हुए — वह अब हकीकत में नहीं बदल सकी।
गौरतलब है कि राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ 17 अगस्त को शुरू हुई थी और इसका समापन 1 सितंबर को गांधी मैदान में गांधी मूर्ति से निकलने वाले मार्च के साथ होगा। यह मार्च सुबह 10:50 बजे शुरू होकर हाईकोर्ट के पास स्थित ‘अधिकार प्रतिमा’ तक जाएगा। इसमें कांग्रेस समेत महागठबंधन के कई शीर्ष नेता शामिल होंगे।
इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने बेरोज़गारी, सामाजिक न्याय और जातीय जनगणना जैसे मसलों को प्रमुखता दी। कांग्रेस को उम्मीद है कि समापन मार्च से उसे बिहार में राजनीतिक धार और जनसंपर्क का नया मौका मिलेगा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रशासन का यह फैसला विपक्ष के लिए सीधी चुनौती है। कांग्रेस इसे लोकतांत्रिक अधिकारों की अनदेखी बताएगी, वहीं सरकार इसे सुरक्षा प्रबंधन से जोड़ रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी का ज़मीनी संघर्ष दिखाने वाला संदेश अब उतना प्रभावशाली नहीं रहा। गांधी मैदान से उन्हें दूर रखकर, सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बिहार की सियासत अब प्रतीकों की लड़ाई बन चुकी है — और फिलहाल उसमें कांग्रेस एक कदम पीछे रह गई है।




