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निकोलस कूजुर (Nicholas Kujur) झारखंड के पहले आदिवासी पादरी और रांची के पहले आदिवासी बिशप थे। वे आदिवासी समुदाय से थे और 1919 में पादरी के रूप में अभिषिक्त हुए। उनका जन्म 7 सितंबर 1898 को रेंगारी, बंदीपहार में हुआ था।
उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा रेंगारी में प्राप्त की और 1912 में रांची के सेंट जॉन स्कूल में दाखिला लिया। 1915 में उन्होंने पादरी बनने की इच्छा से अपोस्टोलिक स्कूल जॉइन किया। 1919 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, उन्होंने शेम्बागानुर में जेज़ुइट नॉविसिएट में दाखिला लिया और वहां दर्शनशास्त्र और क्लासिकल अध्ययन किए। 1924 में वे रांची लौटे और सेंट जॉन स्कूल में दो वर्षों तक रेजेंसी की। इसके बाद, उन्होंने लुवेन विश्वविद्यालय में थियोलॉजी का अध्ययन किया और 1930 में रांची के बिशप लुइस वैन होएक द्वारा पादरी के रूप में नामित हुए।
रांची लौटने के बाद, उन्होंने सेंट अल्बर्ट मेजर सेमिनरी में थियोलॉजी और कैनन लॉ के व्याख्याता के रूप में कार्य किया। बाद में, वे मैनरेसा हाउस के रेक्टर और सेंट जॉन स्कूल के हेडमास्टर बने।
13 दिसंबर 1951 को, उन्हें रांची के नए डायोसिस रायगढ़-अंबिकापुर का पहला बिशप नियुक्त किया गया, जिससे रांची को अपना पहला आदिवासी बिशप मिला। 19 सितंबर 1953 को रांची को आर्कडायोसिस का दर्जा मिला और वे रांची के पहले आर्कबिशप बने। 25 जुलाई 1960 को उनका निधन हुआ और उन्हें कुंकीरी कैथेड्रल में दफनाया गया।
उनकी नियुक्ति से पहले, 1951 में, रांची के बिशप ऑस्कर सेवरिन ने स्थानीय आदिवासी पादरी की आवश्यकता महसूस की और निकोला कूजुर को बिशप नियुक्त किया, ताकि स्थानीय समुदाय का नेतृत्व किया जा सके। सेवरिन ने 1957 में फिर से सेवानिवृत्ति ली और अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्टेनिसलॉस टिग्गा को नियुक्त किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि कूजुर का चयन स्थानीय समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। उनकी नियुक्ति ने झारखंड के आदिवासी समुदाय के लिए एक नया अध्याय शुरू किया, जिसमें स्थानीय नेतृत्व और पहचान को महत्व दिया गया।
गौरतलब है कि रेंगारी और बंदीपहार, दोनों स्थान झारखंड राज्य के सिमडेगा जिले में स्थित हैं। रेंगारी पल्ली चर्च, सिमडेगा से लगभग 22 किलोमीटर दूर स्थित है और कैथोलिक विश्वासियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में उभर रहा है। यह स्थल 1900 में बेल्जियम के मिशनरी फादर लुइस कार्डों द्वारा बिरू राजा से खरीदी गई भूमि पर स्थापित किया गया था। 1901 में, फादर कार्डो और योसेफ वान रोवने ने इस क्षेत्र के बंदीपहार नामक जगह पर डेरा डाला और यहां गिरजा झोपड़ी में आराधना शुरू की। अक्टूबर 1903 तक यहां पुरोहित निवास बन चुका था। 1965 में, यहां एक और सुंदर गिरजाघर का निर्माण हुआ, जो गौथिक शैली का एक खूबसूरत नमूना है और वर्तमान में प्रार्थना के लिए उपयोग किया जाता है। रेंगारी और बंदीपहार के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व को देखते हुए, इन स्थानों को झारखंड के आदिवासी ईसाई समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के रूप में माना जाता है।




