हान कांगा
अगर एक दिन नियति मुझसे बात करे
मुझसे पूछे
मैं तुम्हारी नियति हूं
पता नहीं तुम्हारे मन में मेरे प्रति
गिला-शिकवा है
या मैं तुम्हें पसंद हूं
मैं चुपचाप उसे अपने बाहों में भर लूंगी
और लंबे समय तक
उसे लगे से लगाये रखूंगी
मैं नहीं जानती कि उस समय मेरी आंखो से आंसू छलक उठेंगे या मैं इतना शांत रहूंगी
या मुझे लगेगा कि
मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नहीं है
(शीर्षक नहीं मिल पा रहा है)
इस कविता का अभिप्रेत है कि हर व्यक्ति की नियति समान नहीं होती। सब अपने-अपने ढंग से जीते और मरते हैं, लेकिन दुनिया में सरल और सहज जीवन नहीं होता। हमारे जीवन की रीति-नीति भिन्न जरूर दिखती हैं, लेकिन हर आदमी अपने-अपने हिस्से की व्यथा-विषाद को झेलता है। जीवन जो दर्द लाता है, वह वस्तुतः समान है।
हान कांग को ‘शाकाहारी’ उपन्यास पर कुछ साल पहले बुकर अंतराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। मुझे इस उपन्यास के अन्तर्गभित भाव और उपरोक्त कविता के भाव में समानता दिखती है। दोनों आध्यात्म से प्रेरित रचनाएं हैं। हम अपनी नियति के लेख के साथ समझौता करते हैं लेकिन समाज के शाकाहारवादी, अर्थात सर्वसमादृत भोग-विलास, पद-पदवी के रैट रेस से दूर रहने वाले और अपने से भिन्न वाद या विचारधारा में आस्था रखने वाले लोगों के प्रति हमारे मन में असहजता के भाव क्यों उत्पन्न होते हैं? कोरिया में कुछ अपवाद को छोड कर सब मांसाहारी हैं, इसलिए ‘शाकाहारी’ सामान्य जीवन से भिन्न जीवन पद्धति का प्रतीक है। हम जिस समाज और समुदाय का हिस्सा हैं, उसमें अनेक प्रकार के शाकाहारी रहते हैं। यदि हम एक- दूसरे की शाकाहारी जीवन-पद्धति को या दूसरों की जीवन-शैली की भिन्नता को स्वीकार कर लें और यह मान लें कि विविधता आधुनिक समाज का बीजशब्द है तो इससे समाज का तनाव कुछ कम हो जायेगा और हमारे अन्तस में रसी-बसी हिंसा की ज्वाला भी शांत हो जायेगी। इस उपन्यास के मुख्य पात्र के रोजमर्रे की जिन्दगी में कुछ भी नया नहीं है, सब कुछ सामान्य है, लेकिन जब एक सपने के कारण वह शाकाहारी बन जाती है, उसकी आंखों के सामने अपने समाज की विसंगतियां एक एक कर उजागर होने लगती हैं। हान कांग ने एक बार कहा था कि सपने मे जो कुछ दिखता है, वह वह किसी न किसी रूप में उनके लेखन में उतर आता है। यह एक नये किस्म का लेखन है जो हमें जीवन और जगत के परिवर्तन के बारे में सोचने को विवश करता है। यह मिशेल फुको के दर्शन की तरह गम्भीर और गाढ़ा साहित्य है। फुको ने हिंसा पर जो कुछ लिखा है, उसका प्रभाव भी उपन्यास में कहीं कहीं परिलक्षित होता है।
(पंकज मोहन की पोस्ट को मिलाजुला कर)