पंकज मोहन
कोरिया की सबसे मशहूर किताब की दुकान का नाम है ‘क्योबो’ जो सेओल के चोंगनो क्षेत्र में स्थित है। इसके चेन स्टोर अन्य जगहों पर भी हैं। छोटे स्टेडियम जैसी दूर तक फैली इस दुकान में तेईस लाख किताबें हैं। हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से सूनी थी। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा था- ‘नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिए आरक्षित’। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ। कोरियाई साहित्य-रसिकों का मनोरथ पूरा हुआ।
दक्षिण कोरिया की कवियित्री और कथाकार हान कांग को नोबेल पुरस्कार जीतने के लिए बधाई।
हान कांग (जन्म 27.11. 1970) ने शैशवकाल से ही अपना जीवन कोरियाई और विश्व साहित्य के गौरव ग्रंथ के साथ बिताया। उसके पिता हान संग-वन फणीश्वरनाथ रेणु की तरह कोरियाई साहित्य में आंचलिक उपन्यास के सफल प्रयोगकर्ताओं के रूप में जाने जाते हैं। उनकी एक कथा पर ‘आजे आजे परा आजे’ (प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र की एक पंक्ति का कोरियाई अनुवाद जिसका अर्थ है, ‘चलें, मोहमुक्त हो आगे बढें’) नामक फिल्म भी बन चुकी है। हान कांग के बड़े भाई (दो साल बड़े) भी पिछले बीस वर्षों से बहुत परिश्रम से कहानी और उपन्यास लिखते आ रहे हैं और साहित्य के पथ पर अपनी बहन का मार्गदर्शन भी करते आ रहे हैं। हान कांग ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि बचपन में उनके लिए किताबें अर्ध-जीवित प्राणी थीं, जिनके साहचर्य में उन्हें सहजता का अनुभव होता था। किताबें उन्हें आश्वस्त करती थीं, “मैं तुम्हारे साथ हूं। मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी।” मकान बदल कर नये इलाके में जाने पर पड़ोस के बच्चों से दोस्ती बाद में होती थी, पहले अपने पुराने दोस्त, पुरानी किताबों की आलमारी से मिलती थी। पुरानी किताबों की संगति के कारण उन्हे लगता था कि मैं नयी जगह तो आयी हूं, लेकिन पुराने दोस्तों से जुदा नहीं हुई हूं।
किशोरावस्था में हान कांग रूसी साहित्य, विशेष कर दोस्तोवस्की और पास्तरेनाक के उपन्यासों की दुनिया में डूबी रहती थी। 14 साल की उम्र में उन्होंने कोरियाई साहित्यकार लिम चल-वू की एक कहानी ‘साफ्यंग स्टेशन’ पढ़ी जिससे वह बहुत प्रभावित हुईं। इस कथा में बर्फीली रात में एक छोटे-से कस्बाई रेलवे स्टेशन के माध्यम से हाशिये पर जी रहे गरीब-गुरबा के जीवन की थकान का सहानुभूतिपूर्ण वर्णन है। इसमें कोई नायक नहीं है; आखिरी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे यात्री साथ बैठे हैं। एक खांसता है, दूसरा अपने बगलगीर मुसाफिर से बातचीत शुरू करने की कोशिश करता है। एक यात्री घूरे की आग की आंच में लकड़ी रख रहा है, आंच के चारो ओर बैठे यात्री अपने शरीर को गरमा रहे हैं। वहां एक किसान भी है, जिसका मुख म्लान है। उसे इस बात का अफसोस है कि हिमानी और बेशुमार ठंडी रात में जब उसके बूढ़े बाप ने कहा, मुझे अस्पताल ले चलो, उसे इस अनुरोध पर मन ही मन गुस्सा क्यों आया। दो खोमचे वाले भी हैं और दो औरतें हैं, एक अधेड़ उम्र की मोटी औरत है और एक जवान लडकी है, जिसने काफी मेकअप काफी कर रखा है।
अपने साहित्य सिंचित पारिवारिक परिवेश और इस कथा की मोहिनी शक्ति के कारण हान कांग ने कैशोर्यावस्था में लेखक बनने का फैसला किया। सेओल-स्थित यनसे विश्वविद्यालय में उन्होंने कोरियाई साहित्य का अध्ययन किया। बाद में यूरोप और अमेरिका में कुछ महीने बिताने के बाद उन्होंने समकालीन विश्व साहित्य की ऊर्जा और उष्मा को अच्छी तरह जाना और समझा। WG Sebald की Austerlitz, The Emigrants, A Place in the Country आदि पुस्तकों को पढ़ कर उन्हे महसूस हुआ कि लेखक ने सामूहिक स्मृति को आत्मसात करने के लिए अंतर्जगत में गहराई से प्रवेश किया है। Jorge Luis Borges, Primo Levi, Italo Calvino, Arundhati Roy की रचनाओं को भी उन्होंने चाव से पढ़ा।
आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं। उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ तेईस साल की अवस्था मे हुआ जब ‘साहित्य और समाज’ नामक पत्रिका में उनकी पांच कविताएं छपीं। 1995 में उनकी छोटी कहानियों की पहली किताब आई, ‘यसु शहर का प्यार’। नोबेल समिति ने उन्हें ‘गहन काव्यात्मक गद्य में इतिहास के जख्म को, सामूहिक स्मृति की पीड़ा को और मानव जीवन की अनिश्चितता और नश्वरता को पिरोने’ के कौशल के लिए पुरस्कृत किया है।
(Pankaj Mohan post)




