मानवता के खिलाफ अपराध में शेख हसीना दोषी, इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल का ऐतिहासिक फैसला; क्या हैं इसके मायने

18th November 2025


GUNJESH

बांग्लादेश की राजनीति में सोमवार यानी 17 नवंबर 2025 का दिन एक ऐसे मोड़ के रूप में दर्ज हो गया, जिसकी गूंज आने वाले कई वर्षों तक सुनी जाएगी। इसी दिन इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल (ICT) ने देश की पूर्व प्रधानमंत्री और अवामी लीग की सर्वाधिक प्रभावशाली नेता शेख हसीना को मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मौत की सजा सुनाई। यह वही कोर्ट था जिसकी स्थापना खुद शेख हसीना ने 2010 में की थी—1971 के युद्ध अपराधों की जांच और दंड के लिए। विडंबना यह है कि आज उसी कोर्ट में उन्हें दोषी ठहराया गया है। यह फैसला अचानक नहीं आया। इसकी शुरुआत जुलाई 2024 के उस छात्र आंदोलन से होती है, जिसने पूरे बांग्लादेश को हिला दिया था। छात्र संगठन और युवा समूह ‘कोटा सिस्टम’, सरकारी दमन और अवामी लीग की कथित तानाशाही नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे। आंदोलन में जबरदस्त हिंसा भड़क गई और ढाका से लेकर चांखारपुल, अशुलिया तक कई जगह पुलिस और सत्तारूढ़ दल के समर्थकों ने छात्रों पर गोलीबारी की। दर्जनों छात्रों की मौत हो गई—कई मौके पर सीधे गोली मारकर और कुछ मामलों में शवों को जला कर।

यही घटनाएँ बाद में “मानवता के खिलाफ अपराध” के रूप में ICT में दर्ज हुईं। अगस्त 2024 के विद्रोह और तख्तापलट के बाद शेख हसीना देश छोड़कर भारत आ गईं। उनके साथ ही तत्कालीन गृह मंत्री असदुज्जमान खान कमाल भी भाग गए। दोनों पिछले 15 महीनों से भारत में रह रहे हैं। इस दौरान बांग्लादेश में एक अंतरिम व्यवस्था बनी और ICT ने छात्रों के नरसंहार और सरकारी दमन पर सुनवाई शुरू की। ICT-1 की तीन सदस्यीय पीठ, जिसका नेतृत्व जस्टिस एमडी गोलाम मुर्तजा मोजुमदार कर रहे थे, ने हजारों पन्नों के दस्तावेज, गवाहियों और डिजिटल सबूतों की समीक्षा शुरू की। अभियोजन पक्ष ने कोर्ट में 135 पन्नों की चार्जशीट और 8,747 पन्नों के सबूत पेश किए। 81 गवाहों में से 54 गवाहों, जिनमें पुलिस के पूर्व महानिरीक्षक (IGP) अब्दुल्ला अल-ममून और मुख्य जांच अधिकारी शामिल थे, ने ट्रिब्यूनल में गवाही दी। मामून ने न केवल कबूल किया कि घटनाओं के दौरान पुलिस को “ऊपर से आदेश” मिला था, बल्कि उन्होंने सरकारी गवाह (state witness) बनकर पूरे केस की दिशा बदल दी।

17 नवंबर को दिए गए फैसले में ट्रिब्यूनल ने शेख हसीना को तीन तरह की सज़ाएँ सुनाईं— (1) काउंट-4 और काउंट-5 में मौत की सज़ा. (2) काउंट-2 में उम्रकैद (प्राकृतिक मृत्यु तक कैद) (3) कोर्ट ने उनकी सभी संपत्तियों को ज़ब्त करने का आदेश दिया काउंट-4 में हसीना को 5 अगस्त 2024 को ढाका के चांखारपुल में छह निहत्थे प्रदर्शनकारियों की हत्या का “प्रत्यक्ष आदेश देने” का दोषी पाया गया। गवाहियों और डिजिटल सबूतों—जैसे वायरलेस रिकॉर्ड, कॉल डेटा, और वीडियो क्लिप—ने यह साबित किया कि सुरक्षा बलों ने गोलीबारी हसीना के निर्देश पर की थी। काउंट-5 और भी भयावह था। इस दिन अशुलिया में छह छात्र प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई गई—पांच की मौके पर मौत हुई और बाद में उनके शवों को जला दिया गया, जबकि छठे छात्र को कथित तौर पर जिंदा जलाया गया। ट्रिब्यूनल ने आरोपियों को “संलिप्तता, उकसावे और साजिश” का दोषी माना। काउंट-2 के तहत उन्हें छात्रों पर “हेलीकॉप्टर, ड्रोन और घातक हथियारों से हमला कराने” का दोषी पाया गया। इस आरोप ने मामले को “सुपीरियर कमांड रिस्पॉन्सिबिलिटी” यानी उच्च कमान की जवाबदेही के दायरे में ला दिया—एक अंतरराष्ट्रीय कानून सिद्धांत जो किसी भी राष्ट्राध्यक्ष या शीर्ष अधिकारी को नीचे किए गए अपराधों के लिए ज़िम्मेदार ठहराता है। पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमान खान को भी दो आरोपों में मौत की सजा सुनाई गई, जबकि पूर्व IGP मामून को पाँच साल की सजा मिली—क्योंकि वह सरकारी गवाह बन गए और उन्होंने घटनाओं की पूरी रूपरेखा कोर्ट में पेश की।

फैसले का दिन बांग्लादेश के इतिहास में सबसे अधिक सुरक्षा वाला न्यायिक दिन माना गया। ICT के आसपास सेना, BGB, RAB, पुलिस और APBn की चार-स्तरीय सुरक्षा लगाई गई। हाई कोर्ट गेट से दॉयल चattar तक ट्रैफ़िक बंद कर दिया गया। अदालत कक्ष पत्रकारों, विदेशी पर्यवेक्षकों और पीड़ित परिवारों से भरा हुआ था। जैसे ही फैसला पढ़ा गया—कहते हैं कि कोर्टरूम में मौजूद दर्जनों लोगों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दीं। यह दृश्य बांग्लादेश की राजनीतिक और सामाजिक मनोभावना को साफ दिखा गया—एक वर्ग महीनों की हिंसा और मौतों के बाद न्याय होने से राहत महसूस कर रहा था। लेकिन यह तस्वीर एकतरफा नहीं है। शेख हसीना के समर्थक, जिनकी संख्या देश में काफी है, इस फैसले को “राजनीतिक बदला” बता रहे हैं। उनका कहना है कि यह ट्रायल तख्तापलट के बाद बनी परिस्थिति में हुआ, और इसे निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। स्वयं शेख हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने कुछ दिनों पहले अल जज़ीरा को दिए इंटरव्यू में दावा किया कि “हसीना के खिलाफ फैसले पहले से तय थे” और यह कि “उनकी मां भारत में सुरक्षित हैं।” अटॉर्नी जनरल मोहम्मद असदुज्जमान ने फैसले पर संतोष जताते हुए कहा कि “जुलाई क्रांति में मारे गए लोगों को न्याय मिला है।” यह बयान इस मामले को एक “राष्ट्रीय न्याय” की तरह पेश करता है—जो आंदोलन में मारे गए छात्रों के परिवारों के लिए उम्मीद का संदेश देता है। लेकिन यह भी सच है कि यह फैसला केवल एक न्यायिक फैसला नहीं, बल्कि बांग्लादेश की राजनीति में गहरे परिवर्तन का संकेत है। 15 वर्षों तक सत्ता में रही अवामी लीग अब प्रभावहीन हो चुकी है, उसके शीर्ष नेता देश से बाहर हैं, और बांग्लादेश की नई सत्ता संरचना अभी बिल्कुल अस्थिर है। शेख हसीना पर तीन और मामले लंबित हैं—दो जबरन गुमशुदगी के और एक 2013 के शापला नरसंहार का। उन मामलों में क्या होगा, इसका भी राजनीतिक असर गहरा होगा।

आने वाले दिनों में यह फैसला दक्षिण एशिया की राजनीति पर भी असर डालेगा। भारत में हसीना की उपस्थिति, बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय संबंध, और पड़ोसी देशों की प्रतिक्रिया—ये सभी बड़े सवाल हैं। बांग्लादेश के लिए यह फैसला एक “ऐतिहासिक मोड़” है—जो या तो न्याय का एक नया अध्याय खोलेगा या राजनीतिक संघर्ष का एक और दौर। किसी भी स्थिति में यह स्पष्ट है कि शेख हसीना का यह मुकदमा और फैसला आने वाली पीढ़ियों तक चर्चा में रहेगा। अब सवाल यह है कि इस फैसले के बाद शेख हसीना के पास रास्ते क्या बचे हैं और उनके लिए भविष्य में क्या छिपा है। सबसे पहला और स्वाभाविक विकल्प कानूनी लड़ाई का है। बांग्लादेशी कानून के तहत इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ अपील का रास्ता खुला रहता है। बचाव पक्ष पहले ही संकेत दे चुका है कि वे उच्च अदालत में इस फैसले को चुनौती देंगे। इसका मतलब है कि आने वाले महीनों में बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट या संबंधित उच्च न्यायिक मंचों पर यह पूरा केस दोबारा बहस का विषय बनेगा। अगर किसी भी स्तर पर अदालत यह माने कि ट्रायल असंतुलित, राजनीतिक या प्रक्रिया की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण था, तो सज़ा कम हो सकती है, पलट सकती है या केस दुबारा सुनवाई के लिए भेजा जा सकता है। दूसरा रास्ता अंतरराष्ट्रीय मंचों का है। भले ही बांग्लादेश इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) के दायरे में सीधे न आता हो, लेकिन मानवाधिकार संगठनों, संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय लॉबी समूहों के जरिए इस फैसले को वैश्विक बहस का मुद्दा बनाया जा सकता है। हसीना के समर्थक पहले ही इसे “विक्टोर जस्टिस”—यानी विजेताओं का न्याय—बताने लगे हैं। आगे चलकर यह संभव है कि उनके पक्ष की लॉबी इस फैसले को एक “पॉलिटिकल विच हंट” के तौर पर प्रोजेक्ट करे और अंतरराष्ट्रीय दबाव के ज़रिए बांग्लादेश पर पुनर्विचार का दबाव बनाया जाए। तीसरा और सबसे संवेदनशील पहलू है भारत में उनका भविष्य। फिलहाल जो नैरेटिव है, उसके मुताबिक शेख हसीना और असदुज्जमान दोनों भारत में हैं और यहाँ उन्हें सुरक्षा मिली हुई है। यदि बांग्लादेश की मौजूदा सरकार आधिकारिक रूप से प्रत्यर्पण (एक्सट्रडिशन) की मांग करती है, तो भारत के सामने एक जटिल द्वंद्व खड़ा होगा—एक तरफ पड़ोसी देश के न्यायिक फैसले का सम्मान, दूसरी तरफ एक पूर्व प्रधानमंत्री, जो लंबे समय तक भारत की करीबी राजनीतिक सहयोगी रही हैं।

क्या भारत उन्हें राजनीतिक शरण (political asylum) की तरह रखेगा? क्या कोई “सुरक्षित निर्वासन” (safe exile) जैसा मॉडल बनेगा जिसमें वे भारत या किसी तीसरे देश में रहकर बाकी जीवन गुजारें? या फिर किसी राजनीतिक सौदे के तहत बांग्लादेश और भारत के बीच कोई समझौता निकलेगा? यह सब फिलहाल अनुमान की ज़द में है, लेकिन इतना तय है कि हसीना का सवाल अब सिर्फ़ बांग्लादेशी राजनीति का नहीं, बल्कि एक बड़े क्षेत्रीय भू-राजनीतिक समीकरण का हिस्सा बन चुका है। चौथा पहलू उनका राजनीतिक भविष्य है। एक ओर, मौत की सज़ा और “मानवता के खिलाफ अपराध” की मुहर किसी भी नेता की सार्वजनिक छवि पर गहरा धब्बा छोड़ती है। यह बात साफ है कि मौजूदा बांग्लादेशी सत्ता-संरचना में हसीना की राजनीतिक वापसी लगभग असंभव दिखती है। वे व्यवहारिक तौर पर निर्वासन वाली ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगी, और बांग्लादेश की धरती पर कदम रखना उनके लिए खतरे से खाली नहीं होगा। दूसरी ओर, राजनीति में “विक्टिमहुड” यानी खुद को अन्याय का शिकार साबित करने की धारा भी बहुत शक्तिशाली होती है। अवामी लीग और हसीना समर्थक इस फैसले के खिलाफ एक “अन्याय, साज़िश और बदले की राजनीति” का नैरेटिव बना सकते हैं, जो भविष्य में उन्हें किसी प्रकार की प्रतीकात्मक शक्ति—शायद “शहीद लोकतंत्र” या “बली की बकरी” जैसे फ्रेम में—तब भी ज़िंदा रख सकता है। अंत में, हसीना के पास एक मानवीय विकल्प भी हो सकता है—किसी भविष्य की सरकार या अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप के ज़रिए आम माफी या सज़ा में राहत का रास्ता।

बांग्लादेश अगर कभी किसी व्यापक “राष्ट्रीय सुलह प्रक्रिया” (national reconciliation) की तरफ बढ़ता है, तो संभव है कि उसके हिस्से के रूप में पुरानी राजनीतिक और न्यायिक लड़ाइयों को किसी ट्रुथ एंड रीकन्सिलिएशन मॉडल के तहत बंद करने की कोशिश की जाए। लेकिन ऐसी कोई तस्वीर फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है, क्योंकि देश अभी हालिया विद्रोह, सत्ता परिवर्तन और ध्रुवीकरण की आग से बाहर ही नहीं निकला है। कुल मिलाकर, इस फैसले के बाद शेख हसीना के जीवन में तीन शब्द निर्णायक दिखते हैं—निर्वासन, मुकदमे और नैरेटिव। वह कहाँ रहेंगी, कानूनी लड़ाई कैसे लड़ी जाएँगी, और उनकी विरासत को बांग्लादेश की जनता आखिरकार “तानाशाही” के प्रतीक के रूप में याद करेगी या “स्थिरता और विकास” के प्रतीक के रूप में—इसी पर उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत भविष्य की दिशा तय होगी। इतना तय है कि यह कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, बल्कि एक नए, कहीं अधिक जटिल अध्याय में प्रवेश कर चुकी है।

(नोट- प्रस्तुत आलेख में लेखक के निजी विचार हैं, ulgulan.in का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)

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