22nd October 2025
जस्टिस श्रीधरन के तबादले पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने के बदले फैसले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कार्यपालिका के प्रभाव को लेकर चिंताएं बढ़ाईं
New Delhi
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अतुल श्रीधरन को छत्तीसगढ़ की बजाय इलाहाबाद हाईकोर्ट स्थानांतरित करने का निर्णय, जिसे केंद्र सरकार की ‘पुनर्विचार’ की मांग पर लिया गया है, ने एक बार फिर न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को लेकर बहस छेड़ दी है।
कॉलेजियम ने 14 अक्टूबर को जारी अपने संक्षिप्त प्रस्ताव में यह तो बताया कि निर्णय केंद्र की पुनर्विचार की मांग के बाद लिया गया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि केंद्र सरकार को जस्टिस श्रीधरन का छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट जाना क्यों अस्वीकार्य था।
गौरतलब है कि अगस्त 2025 में कॉलेजियम ने जस्टिस श्रीधरन को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट स्थानांतरित करने की सिफारिश की थी, जहां वे वरिष्ठता के आधार पर हाईकोर्ट कॉलेजियम का हिस्सा होते और नए न्यायाधीशों की नियुक्तियों में उनकी भूमिका रहती। वहीं, इलाहाबाद हाईकोर्ट में वे वरिष्ठता में सातवें स्थान पर होंगे और कॉलेजियम से बाहर रहेंगे।
कॉलेजियम, जिसकी अध्यक्षता वर्तमान में भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई कर रहे हैं, ने यह स्पष्ट नहीं किया कि केंद्र की इस सिफारिश को क्यों स्वीकार किया गया, जबकि कॉलेजियम के पास सरकार की आपत्ति को खारिज कर पहले वाले निर्णय को दोहराने का अधिकार था।
यह पहला मौका नहीं है जब कॉलेजियम ने सरकार की आपत्तियों के बाद अपनी सिफारिशों को बदला हो। इससे पहले 2018 में, जस्टिस अकील कुरैशी के मामले में भी केंद्र की आपत्ति के चलते उनका स्थानांतरण एक बड़े हाईकोर्ट से एक छोटे हाईकोर्ट में किया गया था। वहीं, 2022 में जस्टिस एस. मुरलीधर को मद्रास हाईकोर्ट भेजने की सिफारिश को केंद्र की अनदेखी के चलते वापस लेना पड़ा था।
जस्टिस श्रीधरन का यह तीसरा तबादला है। उन्हें पहले मध्य प्रदेश से जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट स्थानांतरित किया गया था, जो उन्होंने खुद के अनुरोध पर करवाया था क्योंकि उनकी बेटी वहीं वकालत करती हैं। वहां उन्होंने पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत कई नजरबंदी आदेशों को खारिज किया था। बाद में उन्हें मार्च 2025 में वापस मध्य प्रदेश लाया गया, जहां उन्होंने एक भाजपा मंत्री के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए थे।
न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (Campaign for Judicial Accountability and Reforms) नामक एनजीओ ने इस परिवर्तन पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि “दूसरे और तीसरे जजों के फैसलों के अनुसार, स्थानांतरण केवल सार्वजनिक हित में और न्यायपालिका की संस्था की रक्षा के लिए होने चाहिए, न कि सरकार की सुविधा या इच्छा के अनुसार।”
इस घटनाक्रम ने न्यायिक स्वतंत्रता की पारदर्शिता और कॉलेजियम प्रणाली की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।




