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तमिलनाडु में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न (SIR) के दौरान लाखों आदिवासी मतदाताओं के वोटर सूची से बाहर होने का गंभीर खतरा पैदा हो गया है। South First की जमीनी रिपोर्ट में सामने आया कि खासकर महिलाओं के पास ज़रूरी दस्तावेज नहीं हैं, जिसके कारण वे सूची से गायब हो सकती हैं।
4 नवंबर से पूरे तमिलनाडु में चुनाव आयोग की निगरानी में वोटर सूची का विशेष पुनरीक्षण चल रहा है। राज्य के 68,467 बूथ लेवल ऑफिसर्स (BLOs) को एक महीने के भीतर राज्य के 6.41 करोड़ वोटरों से मिलकर फॉर्म बांटने और ऑनलाइन अपलोड करने का काम दिया गया है।
तमिलनाडु की मुख्य निर्वाचन अधिकारी अर्चना पटनायक का दावा है कि 96% लोगों को फॉर्म मिल चुका है और आधे से अधिक फॉर्म भरे हुए वापस भी आ चुके हैं।
लेकिन अहम सवाल यह है—
क्या इन आंकड़ों में आदिवासी समुदाय शामिल हैं?
क्या BLOs इतनी दूर-दराज़ बस्तियों तक पहुंच भी पाएंगे?
और अगर पहुंच भी गए, तो क्या आदिवासी परिवारों के पास अपनी पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज मौजूद हैं?
जमीनी हकीकत: आदिवासी समुदाय SIR की प्रक्रिया से अनजान
रिपोर्टिंग टीम ने बताया कि कई आदिवासी परिवारों को इस प्रक्रिया के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है।
तमिलनाडु के आदिवासियों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है:
- मैदानी इलाकों में रहने वाले
- पहाड़ी इलाकों में रहने वाले
पहले चरण में टीम ने उत्तरी तमिलनाडु के मैदानी इलाकों में रहने वाले इरुलर और कुरावर समुदायों से बात की।
चेंगलपट्टू, तिरुवल्लूर, कांचीपुरम, तिरुवन्नामलाई, वेल्लोर और कृष्णागिरि के कुछ हिस्सों में बड़ी संख्या में आदिवासी रहते हैं। सिर्फ मैदानी क्षेत्रों में ही लगभग 3 लाख आदिवासी रहते हैं।
इनमें से अधिकतर लोगों की रोज़ी-रोटी मजदूरी पर निर्भर है—जंगल में काम, लकड़ी काटना, कंस्ट्रक्शन मजदूरी, जड़ी-बूटी बेचना आदि। लगभग 40% लोग लगातार मजदूरी की तलाश में जगह बदलते रहते हैं। बड़ी संख्या में आदिवासी न तो वोटर कार्ड की अहमियत समझते हैं, न ही उनके पास कोई दस्तावेज है।
कई गांवों में पूरी-की-पूरी परिवारों के पास एक भी दस्तावेज नहीं
वासानमपट्टू की एक इरुलर बस्ती में सरकार और NGO ने 14 परिवारों को घर दिए हैं। कुछ को ज़मीन का पट्टा भी मिला।
लेकिन कई परिवारों के पास अभी भी कोई पहचान पत्र नहीं है।
जैसे, 23 वर्षीय दिनेश के नाम पट्टा तो है, लेकिन उनके पास कोई आईडी नहीं।
उनकी पत्नी पुंगोदी के पास भी कोई दस्तावेज नहीं।
South First की टीम ने पाया कि चेंगलपट्टू और तिरुवल्लूर के लगभग हर इरुलर और कुरावर गांव में कम से कम एक पूरा परिवार ऐसा है, जिसके पास कोई दस्तावेज नहीं है—और इनमें बहुसंख्यक महिलाएं हैं।
कुछ के पास एक-दो दस्तावेज हैं, पर अधूरे,
- किसी के पास सिर्फ आधार
- किसी के पास सिर्फ वोटर कार्ड
- किसी के पास एक बच्चे का, पर दूसरे का नहीं
कई बार स्थानीय नेताओं की मदद से कुछ लोगों के वोटर कार्ड बन गए, लेकिन बाकी लोग पीछे छूट गए।
अगर दस्तावेज नहीं मिले तो 2026 चुनाव से भी बाहर हो सकते हैं
कई परिवार ऐसे हैं, जो पूरी तरह योग्य नागरिक होने के बावजूद, खुद को वोटर सूची में दर्ज ही नहीं करा पा रहे।
इसका मतलब है कि वे 2026 के चुनाव और आगे आने वाले चुनावों से भी बाहर हो सकते हैं। जिनके पास वोटर आईडी है और जिन्हें फॉर्म मिले हैं, उनकी परेशानी अलग है।
फॉर्म में उनसे पूछा जाता है—
- पिछली SIR में वे कहाँ रजिस्टर्ड थे?
- उनके पूर्वज या रिश्तेदार कहाँ दर्ज थे?
अगर ये मेल नहीं खाता, तो 13 दस्तावेजों में से कोई एक देना होगा।
इन दस्तावेजों की लिस्ट लंबी है—पासपोर्ट, कैटेगरी सर्टिफिकेट, जन्म प्रमाण पत्र, लैंड अलॉटमेंट सर्टिफिकेट, NRC, आधार आदि। लेकिन बड़ी समस्या यह है, ज्यादातर आदिवासी 10 साल से ज्यादा एक जगह नहीं रहते, इसलिए पुराने रिकार्ड रखना उनके लिए असंभव है।
माइग्रेशन: दस्तावेज़ से बड़ी चुनौती
30–40% आदिवासी परिवार हर साल काम की तलाश में अलग-अलग जगह जाते हैं।
SIR की यह एक महीने की विंडो उनके लिए बेहद कम है।
जैसे—धर्मपुरी जिले के कई गांवों के आदिवासी हर साल सबरीमाला में काम करने जाते हैं और जनवरी में लौटते हैं।
इससे 200 से ज्यादा परिवारों के नाम वोटर लिस्ट से हट सकते हैं।
50–60 प्रतिशत लोगों के पास आधार या राशन कार्ड तक नहीं
तमिलनाडु जनजाति संघ के नेताओं के अनुसार—
- 60% से अधिक आदिवासियों के पास आधार, राशन कार्ड या वोटर आईडी नहीं है।
- जिनके पास है भी, वह अधूरा है।
ऊपर से अधिकतर बस्तियां दूर-दराज़, पहाड़ी या जंगलों में हैं, जहां BLOs का पहुंचना भी मुश्किल है।
समाधान: SIR की समयसीमा बढ़ाई जाए
संघ नेताओं ने मांग की है कि-
- आदिवासी समुदायों के लिए SIR की डेडलाइन बढ़ाई जाए
- पोंगल तक समय मिल जाए तो 60–70% लोगों को शामिल किया जा सकता है
वरना हजारों परिवार हमेशा के लिए वोटर सूची से गायब हो जाएंगे।

