संस्मरण: चोखवा के लड्डू

6th December 2025

-सुशील स्वतंत्र

टन …. टन …. टन ….टन ….। हजारीबाग के आर्यसमाज स्कूल में रोज की तरह छुट्टी की घंटी बजी। पूरा वातावरण बच्चों के  कोलाहल से गूँज उठा। जैसे सूर्यास्त होते ही परिंदे झुंड बनाकर अपने घोंसलों की ओर लौटने के लिए आसमान पर छा जाते हैं, पलक झपकते ही स्कूल का मैदान दौड़ते-भागते बच्चों से भर गया। उस समय स्कूल बस का चलन नहीं था। बच्चों को ले जाने के लिए साइकिल रिक्शे थे या उन्हीं रिक्शों को रूपांतरिक करके बच्चों के बैठने का मानव संचालित स्कूल वैन बना दिया जाता। बच्चे पैदल या इन्हीं रिक्शों से स्कूल आया-जाया करते। उस समय सबसे शुरुआती कक्षा नर्सरी होती थी, जिसके बच्चों को अभिभावक स्कूल तक पहुँचाने और लेने आते। अभिभावकों को प्रवेश द्वार के अंदर एक निश्चित दूरी तक ही जाने की अनुमति थी। सारे छोटे बच्चे भाग-भाग कर अभिभावकों तक स्वयं आ जाते। सबको घर पहुँचने की जल्दी होती। दूसरे बच्चों की तरह मैं भी भागता हुआ नर्सरी कक्षा से बाहर निकालता। स्कूल भवन और मुख्यद्वार के बीच बहुत बड़ा खेल का मैदान था। प्लेग्राउंड के दूसरे छोर पर प्रतीक्षा कर रहे अभिभावकों में सबसे गोरी और छोटे कद की मेरी दादी ही होती। मैं दूर से ही देख लेता, दादी माथे पर हथेली रखकर बच्चों की भीड़ में मुझे पहचानने की कोशिश करती हुई दिखतीं। मेरी औपचारिक स्कूली शिक्षा कुछ ही दिन पहले शुरू हुई थी। जीवन का पहला विद्यालय हजारीबाग के नवाबगंज स्थित ‘आर्य समाज मंदिर’ था। माँ सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में नर्स थीं, इसीलिए हमारा परिवार हजारीबाग में रह रहा था। दो बड़ी बहनें, मैं, छोटा भाई, माँ और दादी, हम पाँच लोगों का परिवार बंगाली होहल के पीछे किराये पर रहता था। पापा सांगठानिक कार्यों से ज़्यादातर बाहर रहते थे। उनका जीवन घुमक्कड़ों जैसा था। एक पैर घर पर तो दूसरा यात्रा में ही रहता। बहनें बड़ी थीं और माँ ड्यूटी जाती थीं, इसीलिए मुझे स्कूल ले घर ले जाने की जिम्मेवारी दादी के हिस्से आई। छुट्टी की घंटी सुनते ही कक्षा से दौड़कर बाहर निकलने वाले हमउम्र बच्चे लगभग एक साथ ही मुख्यद्वार तक पहुँचते। एक जैसा यूनिफ़ॉर्म पहने बच्चों की भीड़ में दादी प्रायः मुझे पहचान नहीं पातीं। एक-एक करके सभी अभिभावक अपने बच्चों को लेकर चले जाते। स्कूल का मैदान खाली होने लगता। दादी की चिंता बढ़ने लगती। सूती साड़ी पहनी दादी, अपने मोटे चश्में को बार-बार ऊपर-नीचे करतीं, हथेलियों को माथे की झुर्रियों के पास लाकर जाते हुए बच्चों में मुझे पहचानने की कोशिश तेज़ कर देतीं। जब सारे बच्चे जा चुके होते तो परेशान होकर दादी किसी अभिभावक से मगही में पूछतीं – “हमर पोतवा नय अय्लौ। ओकरा केन्नों देखला हे? (मेरा पोता नहीं आया। आपने उसे कहीं देखा है?)” जिनसे भी दादी यह सवाल करतीं, वे कुछ नहीं बोलते, सिर्फ़ मुस्कुराते हुए दादी के पीछे देखने लगते। तभी मैं अचानक पीछे से दादी को ‘धप्पा’ बोल देता। दादी के चेहरे पर चमक लौट आती लेकिन वो गुस्सा होने का अभिनय करतीं। अहा! उस गुस्से में कितना प्यार छिपा होता। मेरा बैग दादी अपने हाथ में ले लेतीं और मैं उनकी उंगली पकड़कर पैदल-पैदल घर की ओर चल देता।

आर्य समाज मंदिर से बंगाली होटल के बीच आते-जाते मैंने दादी की आँखों से दुनिया देखना सीखा। घर पहुँचने से पहले मिलता ‘तकिया मजार’। एक दिन दादी ने बताया था कि इसी मजार पर तुम्हारे जन्म के लिए माँ ने मुराद माँगी थी और सालों बाद जब तुम पैदा हुए, हमारे परिवार द्वारा यहाँ चादर चढ़ायापोशी की गई थी। यादों  के धुँधले-धुँधले से दृश्य अब भी बाकी हैं। लगभग साढ़े तीन सौ साल पुराने हज़रत दाता मदारा शाह के इस तकिया मजार पर सालाना उर्स होता। हर धर्म के लोग दूर-दूर से चादर और फूल चढ़ाने आते। हमारे मोहल्ले के बच्चों के लिए तफरी का माहौल होता। कई दुकानें सजतीं, बर्तन, टोपी, खिलौने की दुकानों से ज्यादा भीड़ खान-पान की दुकानों पर होती। अलग-अलग जगहों के हलवे मिलते, मुंबई का हलवा, अजमेर का हलवा, लखनवी हलवा। रुमाली रोटी, बिरयानी और पराठों की दुकानों पर दिन भर भीड़ उमड़ी रहती। तकिया मजार के बाद सड़क पर ही मिलता बंगाली होटल। दादी की उंगली पकड़े मैं घर की ओर मुड़ जाता। दादी की मजार की कहानी अब भी पूरी नहीं होती, वह कहतीं कि मैं उसका पहला पोता नहीं हूँ। उनका पहला पौत्र हमारे बड़े भैया थे, जिनका नाम ‘एमिल’ था। वे माँ की पहली संतान थे लेकिन उनका जीवन सिर्फ नौ वर्षों का ही रहा। अल्पायु में ही माँ की गोद सूनी कर वे दुनिया से विदा हो गए। उसके बाद शायद ही कोई ऐसा दर हो, जहाँ माँ ने मत्था न टेका हो। क्या मंदिर, क्या मजार, क्या कोई देर-स्थान, हर  जगह एमिल भैया की खाली स्थान को भरने के लिए मुरादें माँगी गईं। दादी कहती – “तू माँगल-छाँगल हीं”, मतलब मैं अनगिनत मुरादों-प्रार्थनाओं के माध्यम से माँगा हुआ बच्चा हूँ। एमिल भैया को मैंने नहीं देखा था। उनके दुनिया से कूच करने और मेरे जन्म के बीच दो बहनों ने माँ की गोद सजायी। मेरी बड़ी बहन और मेरी उम्र में पंद्रह साल का फासला है। इसी तरह बातें और किस्सों की यात्रा करते-करते कब घर आ जाता पता ही नहीं चलता।

दादी आँखों पर काले रंग के चौकोर फ्रेम का चश्मा पहनती। वह मोटे शीशे वाला चश्मा था जिसे दादी साड़ी के पल्लू के किनारे से साफ़ किया करती। मुझको स्कूल से लाने तक ही दादी की जिम्मेवारी सीमित नहीं रहती। घर पहुँचकर कपड़े बदलवाने से लेकर खाना बनाना और मुझे खाना खिलाने का काम भी दादी ही करती। मैंने अपने दादाजी को नहीं देखा। मेरे जन्म से पाँच वर्ष पूर्व ही उनका देहांत हो गया था। मेरे बालमन में कभी-कभी यह सवाल आता था कि लोग दादा को ‘दादा-पापा’ क्यों नहीं कहते हैं, जबकि दादी को ‘दादी-माँ’ कहते हैं? अब दादी को याद करता हूँ तो इस बचकाने सवाल का जवाब स्वतः मिल जाता है कि दादी की भूमिका एक बच्चे के जीवन में माँ से कम नहीं होती है, इसीलिए वह ‘दादी-माँ’ है। जब तक दादी होशोहवास में रहीं, माँ घर की चिंताओं से मुक्त होकर नौकरी करती रहीं। पहले बिहार सरकार के स्वस्थ्य विभाग में, उसके बाद सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल) में। जब माँ ने सीसीएल जॉइन किया, तब हमारा परिवार हजारीबाग से शिफ्ट होकर कोलियरी क्षेत्र लईयो चला आया। अचानक शहर से दूर जाकर एक ऐसी जगह हमलोग रहने लगे, जहाँ सब कुछ काला-ही-काला था। सड़के, घर, पेड़-पौधे, गलियाँ, दुकान-मकान सब पर कोयले की काली धूल की परत चढ़ी हुई थी। वहाँ, जहाँ तक नज़र दौड़ाओ, कोयला ही कोयला। हमारा सरकारी क्वार्टर भी कोयले के विशाल भण्डार के ऊपर ही निर्मित था। कुछ ही दूर बड़े-बड़े कोयले की खानें थीं। वहाँ की मिट्टी भी काली दिखती; मानों पूरा लईयो कालिमा की चादर ओढ़े खड़ा हो और उसके मुक़ाबिल खड़ी रहती सूती साड़ी लपेटी उदीप्त्मान मुखमण्डल वाली मेरी दादी। पौ फटते ही उसकी दिनचर्या शुरू हो जाती। हमदोनों भाई अब तक कुछ बड़े हो गए थे। इतने बड़े कि स्कूल से क्वार्टर तक किसी की सहायता के बगैर आना-जाना कर लेते थे। स्कूल से लौटकर जब तक हम कपड़े बदलते, दादी बहुत प्यार से हमारे लिए खाना परोस चुकी होती। दाल, भात और आलू का चोखा, इसके अलावा अगर कुछ और व्यंजन होता तो उसे हमदोनों भाई बोनस समझते। हम लगभग रोजाना दाल, भात चोखा खाते। इनके बगैर भोजन अधूरा लगता और मन भी संतुष्ट नहीं होता। खाना खिलाने का दादी का तरीका अनोखा होता। हम दोनों भाइयों को वह एक ही थाली में भोजन देतीं। बड़ी सी थाली में एक तरफ लुगु पहाड़ यानि भात और दूसरी चुटूआ नदी यानि दाल। दादी लुगु बुरू (पहाड़) की तलहटी में बसे संथाली गाँवों की तरह थाली में रखकर देती थी ‘चोखवा के लड्डू।’ खाना एक ही थाली में परोसा जाता था लेकिन दोनों आइयों के हिस्से का चोखा लड्डू की शक्ल में अलग-अलग दिया जाता था। यह स्मृति केवल भोजन की थाली तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन-दर्शन की वह सुभाषित-रेखा है, जिसे हमारी दादी दैनंदिन व्यवहार में उतारकर हमें सहज रूप से सिखा जाती थीं। एक ही थाली, दो जोड़ी हाथ, और चोखे के दो लड्डू, मानो घर की उस छोटी-सी चौखट पर संसार की पूरी व्यवस्था सिमट आती थी। हम दोनों भाइयों की बालसुलभ छीना-झपटी के बीच दादी का मधुर हस्तक्षेप किसी ऋषि-वचन की तरह उतरता –

“काहे ल झगड़ा करो हीं, दुन्नु के हिस्सा के चोखवा का लड्डू अलगै हौ…” उनके इस एक वाक्य याद करके आज सोचता कि दादी के चोखे में आलू, प्याज और मिर्च नहीं बल्कि न्याय, करुणा और मर्यादा, तीनों गुँथे होते। वे जैसे भोजन नहीं, बल्कि सम्मान का वितरण करतीं; स्नेह की वह अनुगूँज हमारी थाली के हर दाने में घुली होती। जब भी चोखा समाप्त होने लगता, दादी अपनी मुस्कान के साथ नया ‘लड्डू’ रख देतीं, जैसे आश्वस्त कर रही हों कि इस संसार में अभाव नहीं है, बस समानता से बाँटनेवाली नीयत चाहिए। हमारे लिए यह चोखा  भोजन भर न था; यह विश्वास था कि कोई है, जो हमारे हिस्से का ध्यान रखता है, उसे बचाकर रखता है और प्रेम से हमें खिलाता है।

आज स्मृतियों की इस धुंध में झाँकता हूँ तो लगता है कि दादी की उस थाली में संसार की सबसे सरल और सबसे गहरी शिक्षा परोसी जाती थी कि “सबका अपना-अपना हिस्सा होता है और दूसरे का हिस्सा नहीं खाना चाहिए।” कितना अद्भुत होता यदि यह शिक्षा हमारे जीवन का स्थायी दर्शन बन पाती और

अगर हम समझ पाते कि सबका अपना-अपना हिस्सा होता है। अपनी-अपनी जगह, अधिकार, सम्मान, आनंद, सबके हिस्से में होता है। किसी का हिस्सा छीन लेने में न तृप्ति है, न विजय और अपने हिस्से का संरक्षण ही सच्ची परिपक्वता है। दादी के शब्द आज तक मन के किसी कोने में वैसे ही गरम हैं जैसे ताज़ा रखा हुआ वह चोखे का लड्डू,

जिसमें स्वाद कम और दुलार ज्यादा होता। आज याद करता हूँ तो ऐसा एक भी मौका याद नहीं आता, जब दादी के बाद इतने प्यार से किसी ने चोखे के लड्डू बनाकर भोजन कराया हो।

दादी को हम अपने पुरखा की गरिमा से नहीं, बल्कि एक हमउम्र दोस्त की तरह मानते। घर में उनके साथ हमारा रिश्ता इतना निश्छल था कि शरारतें भी बेधड़क होतीं। माँ की डिस्पेंसरी से हम चिकित्सीय टेप ‘ल्यूको प्लास्ट’ ले आते और दादी के मुँह पर चिपका देते, मानो उनका अपहरण कर लिया हो। दादी इसे खेल समझकर अधिकांश समय हँस देतीं, पर कभी-कभी झुँझला भी जातीं। लेकिन वह गुस्सा भी कैसा गुस्सा था, ऊपरी सतह पर नाराज़गी और भीतर तक भरा हुआ अगाध प्रेम। हमारी शरारतों पर उनकी आँखों में जो डाँट चमकती, उसी के पीछे उनकी ममता की अनकही धूप छिपी रहती। वह  स्वभाव से सौम्य, सामाजिक, सभ्य और मन से अतिशय उदार थीं। हमलोगों को हर बात में समझातीं “किसी से भी बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिए। दूसरों के साथ वही करो, जो अपने लिए अच्छा समझते हो।” उनकी यही सीख घर के वातावरण को संस्कारों की खिड़की की तरह खोल देती। आज सोचता हूँ, तो महसूस होता है कि दादी हमारे लिए केवल घर की एक बुज़ुर्ग नहीं, बल्कि नैतिक जीवन की पहली गुरु थीं, जिन्होंने खेल-खेल में ही सिखा दिया कि प्रेम का मूल्य किसी रिश्ते की औपचारिकता में नहीं, उसके आत्मीय व्यवहार में छिपा होता है।

हम दादी के साथ कई तरह के खेल खेला करते, जैसे कोई पुराना पोस्टकार्ड हाथ में लेकर पढ़ने का अभिनय करते हुए दादी को सूचित करते कि गाँव में चचेरे नातेदारों ने उनकी सारी ज़मीन हड़प ली है। वह उस नकली पत्र को असली मानकर ख़ूब भड़कतीं। थोड़ी देर बाद जब माँ उन्हें बतातीं कि हमलोग उनसे मज़ाक कर रहे हैं तो वह हमें मारने के लिए दौड़तीं।

शाम ढलते-ढलते जब खेल के मैदान में अँधेरा पसरने लगता, बच्चों की चहल-पहल धीमी पड़ जाती, पर दादी की पुकार वही रहती, रोज की तरह

तेज़, परिचित, मानो उसने अँधेरे को चीरती हुई मेरे नाम का दीप जला दिया हो। उनकी आवाज़ में एक ही रट होती “सोसिलवा रे…।” अंधेरा होते ही वह लईयो की गलियों में निकल पड़तीं और उनकी पुकार में एक अटूट विश्वास होता कि “सुशील” कहीं न कहीं मुझे सुन ही लेगा। मुझे वो सोसिलवा ही पुकारती थीं। दादी की यह रोज़ की पुकार इतनी गूँजती कि पड़ोसी का तोता भी मेरा नाम रटने लगा। दिन भर “सीता-राम” जपने वाला वह हरा-पीला पंखों वाला जीव अचानक ‘सुशील… सुशील…सोसीलवा रे…..’ चिल्लाने लगता, एकदम दादी की लय में, उनके ही सुर में। तोते का मालिक यह देखकर चिढ़ जाता। शायद उसे लगता था कि भक्ति का राग अब शरारतों के नाम से अपवित्र हो रहा है। एक दिन वह अपनी शिकायत लेकर दादी के सामने खड़ा हो गया। दादी उनकी बात सुनकर शांति से मुस्कराई और कहा “ये तोता और पोता की लड़ाई नहीं होनी चाहिए। अगर आपका तोता ‘सीता-राम’ की जगह ‘सुशील’ बोलने लगा है, तो इसमें बुरा क्या है? आप शिकायत क्यों करते हैं? यदि इतना ही खलता है तो तोता हमें दे दीजिए, हम पाल लेंगे।” दादी की बात में तर्क कम, अपनापन अधिक था

और शायद इसी बात ने पड़ोसी चाचा के मन की गाँठ खोल दी। वह तोता सचमुच हमारे घर आ गया

और जैसे ही आया, घर की फ़िजाँ बदल गई। उस दिन के बाद दादी की पुकार के बीच, एक नया स्वर भी सुनाई देने लगा, चहकता हुआ, चुलबुला और कहीं न कहीं दादी के प्रेम को ही प्रतिध्वनित करता हुआ। मिट्ठू हमारे घर का नया सदस्य बना, एक छोटा-सा, पर मन में बस जाने वाला जीव, जो दादी की ममता में पला और मेरी शरारतों का साथी बना।

कभी-कभी लगता है, मिट्ठू तो बस बहाना था, दादी की पुकार का प्रतिध्वनि रूप, जिसने यह साबित कर दिया कि प्रेम इतना संक्रामक होता है कि जब यह फैलता है, तो दीवारों और पिंजरों की सीमाएँ मिट जाती हैं।

अनुशासन प्रिय और कड़क मिज़ाज माँ का गुस्सा जब तेज़ धूप की तरह तपिश से भरा होता था तो दादी का कोरा शीतल छाँव बन जाता था। मेरी छोटी सी दुनिया में माँ और दादी मानो दो ऋतुएँ थीं, एक धूप की तीक्ष्णता और दूसरी शीतल हवा की सौम्यता लिए हुई।

इसी दौरान दादी हमारी फुआ के घर बेरमों गईं। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से ख़बर आई, एक ऐसी ख़बर, जिसने हमारे घर की दीवारों पर जैसे मौन की परत चढ़ा दी, “दादी की याददाश्त चली गई है।

वह अब किसी को पहचान नहीं रहीं।” यह सुनकर मानो मुझे भीतर कुछ टूटता हुआ महसूस हुआ।

दादी, जिनकी उँगली पकड़कर मैंने चलना सीखा, जिनकी आँखों से मैंने दुनिया को देखना सीखा, जो मेरे बचपन की धुरी रहीं, मेरी हर शरारत की साक्षी, मेरी पुकार पर दौड़ने वाली वही दादी, अब स्मृतिहीन हो गई हैं!

दादी को रेलगाड़ी से वापस लाया गया। उस दिन हम सब दनिया रेलवे स्टेशन पर खड़े थे, धड़धड़ाते डिब्बों की आवाज़ और मन की बेचैनी एक-दूसरे में घुलती जा रही थी। ट्रेन रुकी। लोगों की भीड़ उतरने लगी। और फिर, दो हाथों की सहारे से उतारी जाती दादी दिखीं। थोड़ी झुकी हुई, थोड़ी थकी हुई और बहुत-सी स्मृतियों से रिक्त।

मेरे लिए यकीन करना असंभव था कि दादी अब किसी को पहचान नहीं रहीं हैं। मैं सोचता था कि अगर किसी कारण से ऐसा हो भी गया है, तो भी मुझे देखते ही दादी मुस्कुराने लगेगी और उनकी जाती हुई याददाश्त वापस लौट आएगी।

मैं उनके सामने खड़ा हो गया। जैसे जीवन का सबसे आवश्यक परिचय-पत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ,

“दादी… दादी… हम हीअऊ सोसिलवा … हमरा पहचान दादी … ”

पर दादी की आँखें खाली थीं, ये वो आँखें नहीं थीं,  जो हर बार मुझे देखकर फैल जाती थी। वो मुझे देख रही थीं, पर पहचान नहीं पा रही थीं। आँखों से चमक गायब थी, मानो उनकी दृष्टि मेरे आर-पार चली जा रही हो।

दर्द क्या होता है, संभवतः जीवन में पहली बार मैंने उसी स्टेशन पर महसूस किया। वह चीत्कारों से गहरा, शब्दों से भारी और अकथनीय होता है। जिस दादी के बगैर एक क्षण भी रहने की कल्पना नहीं कर सकता था, वही दादी आज मुझे पहचान तक नहीं पा रहीं हैं। उस प्लेटफ़ॉर्म घर के सभी बड़े थे लेकिन अचानक सबसे अधिक अकेला और असहाय महसूस करने लगा। दादी की आँखों में मेरा न होना…

शायद मेरे बचपन की पहली वास्तविक हानि थी।

कोलियरी की काली धूल, कंकरीली गलियों और कोयला खदानों पर दौड़-भागते हुए कब आठ वर्ष कब बीत गए, समझ नहीं आया। कालिमा से भरा वह संसार हमारे बचपन का अनगढ़ लेकिन मजबूत आधार बन गया, जहाँ हर दिन नए संघर्ष थे लेकिन दादी-माँ हौसला साथ था।

फिर वर्ष 1990 आया, एक ऐसा वर्ष, जिसने हमारे छोटे-से संसार की दिशा ही बदल दी। माँ का तबादला केंद्रीय चिकित्सालय, नईसराय (रामगढ़) हो गया। हम एक बार फिर उस अनिश्चित यात्रा पर निकल पड़े, जिसे दुनिया विस्थापन कहती है, लेकिन यह एक नई शुरुआत भी थी।

कोलियरी की धूल-धूसरित गलियों से निकलकर जब हम दामोदर नदी के शांत तट पर पहुँचे, तो लगा जैसे किसी ने हमारे जीवन की पुस्तक का पन्ना पलट दिया हो। यहाँ हवा में कोल-डस्ट की गंध नहीं थी; पेड़ों के बीच बहती नदी की नमी थी। पीले रंग की एक जैसी दिखने वाली दीवारों, नीले दरवाज़ों और साफ़-सुथरी बाड़ी (बगीचे) वाला डॉक्टर्स कॉलोनी का ‘बी’ टाइप क्वार्टर नम्बर B/7 अब हमारा नया घर था। हर विस्थापन अपने भीतर एक हल्की टीस छुपाए रहता है, पर इस जगह ने उस टीस को धीरे-धीरे मरहम की तरह शांत करना शुरू किया। मेरा दाखिला रामगढ़ के गाँधी स्मारक उच्च विद्यालय की आठवीं कक्षा में हुआ। वह स्कूल मेरे लिए सिर्फ पढ़ाई की जगह नहीं, बल्कि दो दुनियाओं के बीच पुल था, एक तरफ कोलियरी में छूटा हुआ बचपन था और दूसरी तरफ नए शहर की असीम संभावनाएँ।

इन परिवर्तनों के बीच दादी और माँ, अपनी-अपनी प्रकृति के साथ मुझे जीवन के नए दर्शन से साक्षात्कार करवा रहीं थी कि जीवन कहीं ठहरता नहीं; वह हमेशा आगे बहता है, ठीक उसी तरह जैसे चट्टानों से टकराती हुई दामोदर की धारा आगे बढ़ती है। अब तक मैं जीवन की स्वाभाविक गति को समझने लगा था।

अब दादी को भूख, प्यास और माल-मूत्र आदि का ध्यान नहीं रहता था। एक बच्चे की तरह अब उनकी देखभाल करनी होती थी। जिनकी उँगलियों को पकड़कर स्कूल से घर आता था, अब उन्हें अपनी उँगली पकड़ाकर घर में चलाना-फिराना होता। क्वार्टर का एक बेडरूम दादी का कमरा बना दिया गया था। उनके बाल छोटे-छोटे कटवा दिये गए थे। मुझे याद है एक मित्र ने दादी को देखकर मुझसे पूछा था कि क्या तुम्हारी दादी विदेशी से हैं? मैं चुप ही रहा था। 

जैसा अक्सर हाई स्कूल के दिनों में होता है, जीवन अचानक अनगिनत दिशाओं में खुलने लगता है। आँखें भी रोज़ नए सपने सजाने लगती हैं, कभी आँधी की तरह बेचैन, कभी आसमान की तरह विस्तृत। संभावनाओं के विशाल सागर में मन हिचकोले खाते हुए डूबता-उतराता रहता था। मैं भी उसी बहाव का हिस्सा बन गया, पढ़ाई, नए मित्र, और किशोरावस्था की अनकही ऊँचाइयाँ और गुपचुप गहराइयाँ।

इन्हीं दिनों, 1992 में, पटना से एक बड़ी ख़बर आई कि पापा विधायक बन गए। जैसे किसी फ़िल्म की कहानी अचानक नया मोड़ ले ले। कभी कोलियरी की धूल में पले-बढ़े हम, अब राजनीति की चमकते गलियारों की चर्चा में घिर गए। जीवन सचमुच दृश्य-दर-दृश्य बदल रहा था, कभी तेज़ी से, कभी चुपचाप। लेकिन परिवर्तन केवल बाहर नहीं हो रहा था; भीतर भी बहुत कुछ बदल रहा था।

फिर आया साल 1994, मैं दसवीं कक्षा में था। वह वर्ष, जो मेरे जीवन में एक गहरी खामोशी लेकर उतरा। दादी की तबीयत के बारे में सुनकर पापा पटना से रामगढ़ आए हुए थे। उनकी गोद में सिर रखकर दादी इस फ़ानी दुनिया से विदा हो गईं।

मुझे उस दिन साफ़ याद है, मानो समय ने अचानक अपनी चाल रोक ली हो। दादी, जो मेरे बचपन की सबसे स्थायी उपस्थिति थीं, जो मेरे लिए धूप में छाँव, और छाँव में भी दिशा थीं, वो शांत हो गईं थी। उनका जाना सिर्फ किसी बुज़ुर्ग का जाना नहीं था, अतीत के एक सुरक्षित आश्रय का अचानक ढह जाना था। उनकी स्मृतियाँ, उनका स्पर्श, उनका पुकारना, सब कुछ एक क्षण में अकथ्य शून्य में बदल गया।

हाई स्कूल का वह समय, जहाँ सपनों और उम्मीदों का आलोक था, उसी प्रकाश में एक गहरी, थकी हुई छाया भी शामिल हो गई। दादी की विदाई ने मुझे पहली बार यह सिखाया कि बड़े होने की शुरुआती कीमतें हमेशा हृदय की गहरी तलहटियों से ही वसूली जाती हैं।

पापा मृत्युपरांत कर्मकांडों को अनावश्यक आडंबर मानते थे। इसलिए दादी के जाने के बाद मैंने ही अपने बाल मुंडवाए और काँपते हाथों से उन्हें मुखाग्नि दी। दामोदर किनारे बने पुराने छठ-घाट के पास जब उनकी चिता की लौ उठी, तो लगा जैसे मेरे भीतर का एक संसार जल रहा हो।

आज भी जब दामोदर पुल से गुजरता हूँ, तो मन अनायास ही बीते दिनों में लौट जाता है। लगता है, दादी अब भी किसी चट्टान पर बैठी हैं, पत्थरों से टकराती हुई दामोदर की कलकल बहती धारा को अपनी कोमल, धुंधलाती आँखों से निहारती रहीं हैं। उसी क्षण, एक शीतल हवा का झोंका मुझे स्पर्श करता है। मैं ठिठक जाता हूँ, मानो दादी ने अपने अनंत, अदृश्य आँचल से मुझे एक बार फिर ढँक  लिया हो। मानो कह रही हों, “का रे सोसिलवा…”

(लेखक के बारे में: सुशील स्वतंत्र के लेखन से मेरा डेढ़-दो दशक पुराना परिचय है। ज्यादातर मैंने सुशील जी की कविताएं ही पढ़ी हैं और प्रभावित हुआ हूं। गद्य के रूप में में “चोखवा के लड्डू” से उनके लेखन की एक और परत से परिचित होने का अवसर मिला। संस्मरण के रूप में लिखी ये रिपोर्ताज इतनी संवेदनशील है कि कई जगह शब्द ध्वनि और जादू की तरह असर डालते हैं। आने वाले दिनों में वे और सशक्त गद्द के साथ हमारे सामने होंगे- “चोखवा के लड्डू” इस बात की जमानत है)

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