कथा रिपोर्ताज: मुफ्त का राशन- भीखारी का जीवन

             

श्यामल बिहारी महतो

उस भीखारी से यह मेरी पहली मुलाकात नहीं थी, इसके पहले भी हम दो बार मिल चुके थे।  अपने ही हाथों से उसे दो बार भीख भी दे चुके थे। एक बार एक कटोरा चावल और दूसरी बार पांच रूपए दिये थे। कारण घर में ताला लगा हुआ था और मेरे पास दूसरी चाभी नहीं थी। घर से उसका निराश खाली हाथ लौटना मुझे अच्छा नहीं लगा था ‌। हां तब उसके बारे कुछ पता भी नहीं था। 

आज फिर वही अचानक चार बजे भोर घर के बाहर मिल गया। गाय बैलों को खूंटे से बांध, उनके सामने पुआल डाल दिया और मैं खुद आग जला कर हाथ पैर सेंकने लगा था। तभी वह आग के आगे भूत की तरह आकर खड़ा हो गया। और खुद को सेंकने के लिए वह अपना हाथ- पैर सरियाते हुए। 

” अगहन महीना से ठंडा काफी बढ़ जाता है..! ” कहते कहते अलाव से थोड़ी दूर वह बैठ गया था। 

” हां, यही अगहन पुस माह का महीना तो है जो ठंड का असली रूप दिखाता है। अमीरी गरीबी का फर्क बताता है- पहचान कराता है। एक ठंड ही जो किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है और सबको समान रूप से ठंड बांटता है । ” 

मैंने उसकी तरफ देखा। देह पर मात्र एक फटा पुराना कुर्ता, पैरों में पुरानी फटी चप्पल और अपनी कांपती  देह पर  एक फटी चादर उसने ऊपर से ओढ़ रखी थी। तथा कंधे पर एक मटमैला सा झोला टांग रखा था। 

“ आप आग तापिये, मै अभी आया..! “कह मैं अंदर गया और एक पुरानी स्वेटर लाकर उसे देकर कहा “ इसे पहन लीजिए, ठंड से बचने में मदद मिलेगी, ऊन की है  । “

“ बहुत मेहरबानी बाबू जी..! “

” वैसे आज इतनी भोर भोर कुकुआते ठंड में कहां चल दिया..? ” मैंने पूछ बैठा था। 

” गुंजरडीह के झूलन मोदी के घर में रात था। घर की औरतें आधी रात को ही कोयला लाने जाने के लिए कदकदाने लगी थी। मुझे भी उठ कर जाने को कह दिया। रात का पता न चला, निकल कर सीधे इधर आ गया..! “

” पर इतनी भोर जाओगे कहां  ? इतनी सबेरे कोई भीख भी नहीं देंगे..! “

” पहले के श्रबनिया पंडा लोग चार बजे भोर हमारे घरों से भीख मांग ले जाते थे, आपने भी देखा  होगा शायद, हम तो गाँव घर के है । “

” फिर भी इतनी सबेरे, जाओगे कहां  ? “

 ” पहले मझलीटांड जाऊंगा, वहां से परतापुर और फिर बिरनी होते हुए घर..! ” 

” घर में कौन कौन है  ? “

” बेटा है, पुतोहू है और एक पोता और एक पोती भी..! दो बेटियां थी, दोनों की शादी कर दी.! “

” घर में पूरा परिवार है फिर भी भीख मांगते फिरते हो..! “

” हमारा परिवार मेरी पत्नी थी, पिछले साल उसकी मृत्यु हो गई। घर में जो परिवार है वो  मेरे बेटे का परिवार है और उन लोगों ने हमें घर से निकाल दिया है..! “

” ऐसा क्यों..? “

” अब कमा जो नहीं पाता..! “

” आपका नाम क्या है..? “

” राम प्रसाद..! “

“पूरा नाम..! “

” राम प्रसाद मोहली..! “

” घर..! “

” चडरी..! “

” आप तो टोकरी, खंचिया, सुप-दाऊरी बना कर भी इज्जत की जिंदगी जी सकते थे, पहले बनाता ही होगा, शरीर से भी ठीक ठाक हो, यह कामचोरी कहां से आई..? “

उसने अपने दोनों हाथ आगे बढा दिए ‌। दोनों हाथों की दसों के दसों अंगुलियाँ सिकुड़ कर मुड़ गयी थीं ‌। 

” ओह  ! तो यह बात है ‌। दो बार मैंने आपको भीख दी है, पर कभी हाथ की अंगुलियों पर ध्यान नहीं गया  ! सचमुच दुख हुआ..! “

”  राशनकार्ड से आपको गेहूँ चावल तो मिलते होंगे..? ” आग में लकड़ी डालते हुए फिर मैने पूछा  -” , उससे आपका अकेले का तो गुजारा हो जाता..! “

” पुतोहू ने राशन कार्ड छीन ली है..! “

” बेटा से बोलता..! “

” आज की बहुओं के आगे बेटों की कहां चलती है बाबू..! “

” खेती बारी तो कर सकते थे..? “

” छह बूढों की बाईस एकड़ जमीन है, लेकिन सब बेकार- परती पडीं है, जब से सरकार ने राशनकार्ड से अनाज देना शुरू किया है, गाँव में लोग खेती बारी करना  ही छोड़ दिया है ..! “

” और बेटा क्या करता है..? “

” बैंक से लोन में पैसा लिया और मोटरसाइकिल खरीद ली, अब उसका कर्जा भरने के लिए गाँव में इसके उसके घर में पचोडा सचोडा करते फिरता है..! “

”  पुस्तैनी धंधा, टोकरी खंचिया बना कर भी वह पैसे कमा सकता था। बाजार में हाथ के बने समान आज भी बहुत महंगी दामों में बिकते हैं..! “

” आज के लड़के खेती बारी और पुस्तैनी धंधे को बड़ी गिरी हुई नजरों से देखते हैं, बेटा को हमने कई बार कहा लेकिन उसका एक ही जवाब होता है..! “

” – इस धंधे में अब कुछ नहीं रखा है, क्या कहूं बाबू, एक समय था जब तेलो हटिया में रामप्रसाद मोहली के हाथों बनी सूप दोरीऔरटोकरी खंचिया को लोग खोज खोज कर लेते थे  । कुछ तो घरआकर खरीद ले जाते थे। आज हर आदमी अपने अपने पुस्तैनी धंधों से दूर होते जा रहा है। किसान खेत से दूर हो रहा है ।   कुम्हार चाक चलाना छोड़ रहा है। लोहार लोहा गलाना छोड़ दिया। हर आदमी अपनी वृति से मुंह मोड़ रहा है । हाथ ने मुझे भी लाचार कर दिया है, क्या करूँ, भीख मांगता फिरता हूँ..! “कहते कहते उसकी आंखें भर आई थीं  ।

इसी के साथ वह उठ गया था ” ” चलता हूँ बाबू, जाने में घंटा भर लग जाएगा..! ” और वह चला गया था ।

 मैं देर तक यही सोचता रहा कि इस मुफ्त की राशन ने कितनों को निकम्मा बना दिया है..? 

(श्यामल बिहारी महतो दो दशक से लेखन में सक्रिय हैं। कहानी संग्रह और आत्मकथ्य सहित कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ग्रामीण जीवन की विसंगतियां और कोयलांचल की राजनीति में भीतरखाने तक पहुंच रखते हैं। इसलिए अपेक्षित कलात्मक आग्रह न होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचते रहे हैं। उलगुलान के लिए ये कथा रिपोर्ताज खास तौर से भेजा है)

पता- बोकारो, झारखंड, फोन नंबर 6204131994

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