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अमेरिका में स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। अमेरिकी विदेश विभाग ने शुक्रवार को दुनियाभर के अपने दूतावासों और वाणिज्य दूतावासों को नए निर्देश जारी किए हैं, जिनके तहत अब गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों को अमेरिका में प्रवेश करने या लंबे समय तक रहने की अनुमति देना कठिन हो सकता है। यह नीति ‘पब्लिक चार्ज’ यानी “सार्वजनिक बोझ” सिद्धांत पर आधारित है, जिसका उद्देश्य उन प्रवासियों को रोकना है जो भविष्य में अमेरिकी सरकार के संसाधनों या करदाताओं के पैसों पर निर्भर हो सकते हैं।
नए नियमों के तहत वीजा अधिकारियों को यह जांचने के लिए कहा गया है कि कोई भी विदेशी नागरिक अमेरिका में प्रवेश के बाद किस हद तक सरकारी सहायता, स्वास्थ्य सेवाओं या वित्तीय मदद पर निर्भर हो सकता है। इस नीति के पीछे की सोच यह है कि अमेरिका को केवल उन व्यक्तियों को अनुमति देनी चाहिए जो “समाज पर बोझ नहीं बनेंगे” और आर्थिक रूप से खुद को संभालने में सक्षम होंगे। अब वीजा अधिकारी आवेदकों की उम्र, स्वास्थ्य स्थिति, आर्थिक पृष्ठभूमि और भविष्य की संभावित मेडिकल जरूरतों का आकलन करेंगे। अगर उन्हें लगता है कि कोई व्यक्ति गंभीर स्वास्थ्य समस्या से ग्रसित है और उसके इलाज का खर्च बहुत अधिक है, तो उसका वीजा अस्वीकार किया जा सकता है।
अमेरिकी प्रशासन के नए निर्देश में कहा गया है कि कुछ बीमारियां जैसे हृदय रोग, श्वसन संबंधी दिक्कतें, कैंसर, डायबिटीज़, न्यूरोलॉजिकल और मेटाबॉलिक डिजीज़ या मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं लंबे समय तक महंगे इलाज की मांग करती हैं। मोटापा जैसी स्थिति को भी अब “हाई रिस्क फैक्टर” के रूप में देखा जाएगा क्योंकि यह अस्थमा, स्लीप एप्निया, ब्लड प्रेशर और अन्य क्रॉनिक बीमारियों का कारण बन सकती है। अधिकारियों को सलाह दी गई है कि वे यह जांचें कि क्या आवेदक ऐसी चिकित्सा स्थिति से पीड़ित है जो उसे भविष्य में “पब्लिक चार्ज” यानी सरकारी संसाधनों पर निर्भर बना सकती है।
अब वीजा प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों को यह तय करना होगा कि क्या किसी व्यक्ति के पास इतनी आर्थिक क्षमता है कि वह बिना किसी सरकारी सहायता के अपने इलाज और परिवार की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा कर सके। यदि किसी व्यक्ति को लंबी अवधि की देखभाल, महंगी दवाओं या नियमित चिकित्सकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता है, तो उसके वीजा को मंजूरी मिलना कठिन होगा। खास बात यह है कि इस नए नियम के तहत केवल आवेदक ही नहीं, बल्कि उसके परिवार के सदस्यों जैसे बच्चों, बुजुर्ग माता-पिता या जीवनसाथी की स्वास्थ्य स्थिति को भी ध्यान में रखा जाएगा।
कानूनी विशेषज्ञों और इमिग्रेशन वकीलों ने इस कदम को बेहद चिंताजनक बताया है। लीगल इमिग्रेशन नेटवर्क के वरिष्ठ वकील चार्ल्स व्हीलर का कहना है कि वीजा अधिकारी मेडिकल एक्सपर्ट नहीं होते, इसलिए उनसे यह अपेक्षा करना कि वे किसी बीमारी की गंभीरता या उसके संभावित खर्च का आकलन करें, व्यावहारिक रूप से गलत है। उन्होंने कहा कि किसी बीमारी का असर व्यक्ति की आर्थिक स्थिति या सरकारी संसाधन पर कितना पड़ेगा, इसका निर्णय चिकित्सा विशेषज्ञों के बिना नहीं किया जा सकता। वहीं जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी की इमिग्रेशन लॉयर सोफिया जेनोवेस ने कहा कि अब तक आवेदकों को केवल संक्रामक बीमारियों जैसे टीबी या एचआईवी के लिए मेडिकल रिपोर्ट जमा करनी होती थी, लेकिन अब पुरानी बीमारियों, जैसे डायबिटीज़ या हार्ट प्रॉब्लम, को भी वीजा निर्णय में शामिल किया जाएगा। उनका कहना है कि डायबिटीज़ या हृदय रोग जैसी बीमारियां किसी को भी हो सकती हैं, इसलिए इसे वीजा अस्वीकृति का आधार बनाना मानवीय दृष्टि से गलत है।
इस नियम के दायरे में कौन आएगा, इस पर फिलहाल स्थिति स्पष्ट नहीं है। लेकिन नीति की भाषा से यह संकेत मिलता है कि यह न केवल स्थायी वीजा (ग्रीन कार्ड) बल्कि अस्थायी वीजा, जैसे पर्यटन (B-1/B-2), छात्र (F-1) और कार्य वीजा (H-1B) पर भी लागू हो सकता है। ट्रम्प प्रशासन ने 2019 में इसी ‘पब्लिक चार्ज’ सिद्धांत को सख्त करते हुए कहा था कि अमेरिका केवल उन्हीं लोगों को प्रवेश देगा जो समाज में “योगदान” देंगे, बोझ नहीं बनेंगे। अब 2025 में इसी नीति को और कठोर रूप में पुनर्जीवित किया जा रहा है।
उन्होंने यह भी कहा कि इस नए नियम के लागू होने से वीजा इंटरव्यू के दौरान जटिलताएं और बढ़ेंगी, क्योंकि अधिकारी यह जांचने की कोशिश करेंगे कि किसी व्यक्ति को भविष्य में कितनी चिकित्सा जरूरतें पड़ सकती हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई भारतीय इंजीनियर अमेरिका में काम करने के लिए आवेदन करता है और उसे डायबिटीज़ है, तो अधिकारी यह सवाल कर सकते हैं कि क्या वह अपने इलाज का खर्च खुद उठा पाएगा, क्या उसकी आय पर्याप्त है और क्या उसके परिवार में ऐसे सदस्य हैं जिन्हें चिकित्सा सहायता की आवश्यकता होगी।
विशेषज्ञों के अनुसार, इस नियम का असर विशेष रूप से भारतीय और एशियाई अप्रवासियों पर गहरा पड़ सकता है। हर साल करीब एक लाख भारतीय ग्रीन कार्ड के लिए आवेदन करते हैं, जिनमें से 70 प्रतिशत से अधिक आईटी, इंजीनियरिंग और हेल्थकेयर जैसे पेशों में काम करने वाले H-1B वीजा धारक होते हैं। भारत में डायबिटीज़ के मरीजों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है — करीब 10.1 करोड़ लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं। ऐसे में भारतीय पेशेवरों के लिए यह नियम नई मुश्किलें खड़ी करेगा। अगर किसी भारतीय आवेदक को डायबिटीज़ या हृदय संबंधी समस्या है और उसके साथ उसके बुजुर्ग माता-पिता भी अमेरिका जाना चाहते हैं, तो उसका वीजा खारिज किया जा सकता है, भले ही उसका स्पॉन्सर बहुत मजबूत क्यों न हो।
यह नीति सिर्फ आव्रजन प्रक्रिया को कठिन नहीं बनाएगी, बल्कि इससे “चिलिंग इफेक्ट” भी पैदा होगा, यानी स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग को लेकर भय का माहौल बनेगा। 2019 में लागू पुराने नियमों के दौरान यह देखा गया था कि लगभग सात में से एक अप्रवासी परिवार ने मेडिकेड, SNAP (फूड असिस्टेंस) या हाउसिंग जैसी सरकारी योजनाओं का उपयोग बंद कर दिया था, भले ही वे इसके लिए योग्य थे। लोगों ने बीमारियों को छिपाना शुरू कर दिया, इलाज टालने लगे ताकि उनके रिकॉर्ड में मेडिकल डिपेंडेंसी दर्ज न हो। इसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य स्थितियां और बिगड़ीं। अब 2025 में दोबारा यह स्थिति लौटने की संभावना है।
इस नए नियम का असर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका की कार्यशक्ति में अप्रवासियों का बड़ा योगदान है, खासकर टेक और हेल्थकेयर सेक्टर में। अगर स्वास्थ्य समस्याओं वाले कुशल प्रवासी अब अमेरिका नहीं जा पाएंगे, तो इन क्षेत्रों में प्रतिभा की कमी हो सकती है। हालांकि प्रशासन का तर्क है कि इससे सरकारी खर्च में कमी आएगी, क्योंकि ऐसे प्रवासी जो महंगे इलाज पर निर्भर हैं, वे अब अमेरिकी टैक्स सिस्टम पर भार नहीं बनेंगे।
अमेरिका के लिए यह नीति दोहरी तलवार की तरह है — एक ओर यह सरकार को तत्काल वित्तीय राहत दे सकती है, लेकिन दूसरी ओर इससे अमेरिका की वैश्विक प्रतिभा आकर्षित करने की क्षमता पर सवाल उठेंगे। खासकर भारत जैसे देशों में, जहां डायबिटीज़, मोटापा और हृदय रोग बहुत आम हैं, वहां से आने वाले उच्च कौशल वाले पेशेवर अब वीजा प्रक्रिया से डरेंगे।
अंतरराष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडरेशन के अनुसार, भारत को “डायबिटीज़ कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड” कहा जाता है। वर्ष 2019 में यहां 7.7 करोड़ वयस्क डायबिटीज़ से प्रभावित थे, जो 2024 तक बढ़कर 10.1 करोड़ हो चुके हैं। अनुमान है कि 2045 तक यह संख्या 13.4 करोड़ तक पहुंच जाएगी। ऐसे में इस नई अमेरिकी नीति का असर भारत के लाखों परिवारों पर पड़ेगा जो हर साल अमेरिका में बेहतर अवसरों की तलाश में आवेदन करते हैं।
कुल मिलाकर, अमेरिका की यह नई वीजा नीति न केवल इमिग्रेशन प्रक्रिया को जटिल बनाएगी बल्कि नैतिक और मानवीय दृष्टि से भी विवादास्पद साबित हो सकती है। यह नीति स्वास्थ्य को एक “जोखिम कारक” के रूप में देखती है, न कि इंसान की जीवन परिस्थितियों के हिस्से के रूप में। इससे एक ऐसा माहौल बनेगा, जहां बीमारी केवल इलाज का विषय नहीं, बल्कि वीजा अस्वीकृति का कारण बन जाएगी। और यह सवाल अनिवार्य रूप से उठेगा — क्या कोई देश स्वास्थ्य के आधार पर सपनों की सीमा खींच सकता है?




