Mumbai
मीरा रोड स्थित विरूंगला केंद्र में जनवादी लेखक संघ (मुंबई) और स्वर संगम फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में ‘सांस्कृतिक चुनौतियाँ और आज का समय’ विषय पर एक वैचारिक गोष्ठी आयोजित की गई। कार्यक्रम में साहित्यकारों और कवियों ने समाज और सत्ता के बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य पर गंभीर विमर्श किया।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विनोद दास ने कहा कि वर्तमान सत्ता ने “विभाजन की संस्कृति” को सुनियोजित ढंग से बढ़ावा दिया है। यह विभाजन अब केवल जाति, धर्म या भाषा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि परिवार के भीतर तक पहुँच गया है।
उन्होंने तीखे शब्दों में कहा, “इस समय सबसे खतरनाक वे भेदिये हैं जो कल तक प्रगतिशील बने हुए थे, पर आज दक्षिणपंथी मंचों की शोभा बने हैं और कॉरपोरेट संस्कृति का गुणगान कर रहे हैं। ये लोग वायरस से भी अधिक घातक हैं।”

विनोद दास ने कहा कि आज सच्चे और ईमानदार लेखक-कवि अल्पसंख्यक और अकेले पड़ गए हैं। सत्ता और बाज़ार के दोहरे दबाव के बीच उन्हें एकजुट रहकर इस “वायरस संस्कृति” से संघर्ष करना होगा।
लखनऊ से आए प्रसिद्ध कवि-लेखक कौशल किशोर ने कहा कि 1990 के दशक की दो बड़ी घटनाएँ — राम मंदिर आंदोलन और नव-उदारवाद — ने भारतीय समाज और राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। इन दोनों के असर से सांस्कृतिक असमानता और राजनीतिक क्रूरता बढ़ी है।
उन्होंने चौरी चौरा की हाल की दलित उत्पीड़न की घटना का उल्लेख करते हुए कहा, “आज लोकतंत्र के प्रतीक चरखे की जगह बुलडोज़र ने ले ली है। बलात्कारी सम्मानित हैं, भीड़ हत्या पर उतारू है और सत्ताधारी वर्ग मौन है — यही लोकतंत्र की आत्मा के लिए सबसे बड़ा खतरा है।”

कौशल किशोर ने यह भी कहा कि दक्षिणपंथियों के पास संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी वर्ग का अभाव है, इसलिए वे लेखकों और कवियों को प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने विभूति नारायण राय, राजेश जोशी और नरेश सक्सेना जैसे प्रगतिशील रचनाकारों की दक्षिणपंथी मंचों पर उपस्थिति पर निराशा जताई।
अपने वक्तव्य का समापन उन्होंने मुक्तिबोध की पंक्ति से किया — “कोशिश करो, कोशिश करो, जीने की ज़मीन में गड़कर भी।”
गोष्ठी के आरंभ में पुलक चक्रवर्ती ने “संस्कृति” की दो धाराओं पर विचार रखा — एक जो सत्ता के समर्थन में यथास्थिति बनाए रखती है, और दूसरी जो जनता को परिवर्तन की प्रेरणा देती है। उन्होंने बर्टोल्ट ब्रेख्त का उदाहरण देते हुए कहा कि ब्रेख्त अपनी रचनाओं में यह सवाल उठाते हैं — “गुलामों की हार क्यों हुई?”इस परिचर्चा में जुल्मीरामसिंह यादव, आर.एस. विकल, विनीता वर्मा, भूपेंद्र मिश्रा, मुख्तार खान और रमन मिश्र ने भी अपने विचार रखे।
विचार-सत्र के बाद हुआ कविता पाठ कार्यक्रम बेहद ऊर्जावान रहा। इसमें विमला किशोर, रीता दास राम, आमना आज़मी, अर्चना वर्मा, अर्चना सिंह, सुनील ओवाल, मुस्तहसन अज़्म, आरिफ़ महमूदाबादी, सरताज ताज़, हीरालाल यादव, विक्रांत राणा, जुल्मीरामसिंह यादव, भूपेंद्र मिश्र, जामी अंसारी, रमन मिश्र, राकेश शर्मा, कौशल किशोर, विनोद दास और हृदयेश मयंक ने अपनी कविताएँ प्रस्तुत कीं।
कार्यक्रम का संचालन प्रशांत जैन ने प्रभावशाली ढंग से किया। अंत में स्वर संगम फाउंडेशन और जनवादी लेखक संघ की ओर से मुख्तार खान ने आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम का समापन इस संदेश के साथ हुआ, “प्रतिरोध की संस्कृति ही जनता की चेतना की सच्ची वाहक है।”




