गुंजेश
“अन्यायी की तुलना में न्यायी सदैव हानी उठाता है। सर्वप्रथम निजी अनुबंधों में ऐसा होता है : जहां भी अन्यायी न्यायी का साझेदार होता है तो आप देखेंगे कि साझेदारी के टूटने पर अन्यायी को अधिक और न्यायी को कम मिलता है। …”
‘रिपब्लिक’ में थ्रेसीमेक्स के स्वर
मैं जिस जॉन एलिया और जिस शायरी को लेकर आपके सामने हाजिर हूं दरअसल मुझे भी नहीं पता कि वह शख़्स कौन है, उसकी शायरी क्या है… वह संग (पत्थर) है या संगबस्त (मेवा, जिसका पकना बाकी हो)! मानो किसी ख्याल को जिस्म और ज़िंदगी के सांचे में ढाल दिया गया हो। एक ऐसा सांचा जिसने एक ‘अन्यायी’ ख्वाब से साझेदारी कर ली थी। आज जॉन को पढ़नेवाला हरेक इस बात का गवाह है कि उस ख्वाब को जॉन से कितनी ताक़त मिलती है। जॉन ने अपनी शायरी से उस ख्वाब को कितना हरा किया है।
“साल-हा-साल और एक लम्हा
कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दरवाज़े पर दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया…”
“रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निभानी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक़्त
रो न पड़ते गर खुशी होती”
प्लेटो, अरस्तू और मार्क्स के ख्वाबों वाली दुनिया के सपने देखने वाले एक शायर के ये शेर ही इस बात का एलान करते हैं कि
“मैं जो हूं जॉन एलिया हूं जनाब / मेरा बेहद लिहाज़ कीजिये”
मेरी कोशिश तो ये है कि मैं बताऊं कि जॉन क्या थे! लेकिन कोई बतलाए कि मैं बतलाऊं क्या?
“तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू/ होकर बासी कहां से आती है” …
या
“यह ग़म क्या दिल की आदत है ? नहीं तो/ किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो… “तेरे इस हाल पर है सबको हैरत/ तुझे भी इसपर हैरत है? नहीं तो”
या
“जाने कहां गया वो वो जो अभी यहां था/ वो जो अभी यहां था वो कौन था कहां था”… “ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझपर/ था मैं ही दाएं बाएं और मैं ही दरमियां था”
आखिर आपको जॉन के बारे में जानना क्यों चाहिए। बहुतेरे शायर हैं, उनके हजारों शेर हैं, फिर एक अजीब से दिखनेवाले जॉन में ऐसा खास क्या था जिसका जिक्र ज़रूरी है? मैं क्यों जॉन से इतना इंप्रेस, इतना मुतास्सिर हूं? बेशक बहुतेरे शायरों ने ज़िंदगी के हर शेड को बहुत नायाब अंदाज़ में दर्ज़ किया… लेकिन जॉन अपनी तरह के अकेले ऐसे शायर हैं जिन्होंने ज़िंदगी को नहीं, उसके फलसफे (दर्शन) को अपनी शायरी का केंद्र बिन्दु बनाया…
“तुम हो खुशबू के ख्वाब की खुशबू”
या
“तुम तो खुद से भी खूबसूरत हो”…
जॉन ने कहीं लिखा है, ‘फलसफे के तमाम मसले शायरी के मसले हैं, लेकिन शायरी के तमाम मसले फिलॉस्फी के मसले नहीं हैं। फलसफे से अलग शायरी आनेवाले कल की खुशगवार उम्मीदों से समाज को फर्द करती है।’ जॉन ने एक ख्वाब देखा और अपने ख्वाबों में भी उसकी खुशबू महसूस की। ख्वाब, एक बराबर समाज का। सतही पाठ में जॉन दर्द के लूटे-पीटे ज़िंदगी से नाराज़ शायर लग सकते हैं, लेकिन, जैसे-जैसे हम उनकी रूह की मौसिकी के करीब पहुंचते हैं उनकी पाज़िटिविटी, ज़िंदगी को लेकर उनका खुशगवार नज़रिया, उसके लिए उनकी बेचैनी लफ्ज-दर-लफ्ज हमारे जेहन में उतरने लगती है।
‘शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें / तुम सर-ब-सर खुशी थे मगर गम मिले तुम्हें’
इस गज़ल की आख़री शेर में जॉन कहते हैं-
‘यूं हो के कोई और ही हव्वा मिले मुझे / हो यूं के और ही कोई आदम मिले तुम्हें’
एक और शेर
‘अजीयत नाक उम्मीदों से तुझको / अमन पाने की हसरत है? नहीं तो’
जॉन ज़िद और सवालों के शायर थे, उनकी शायरी हमें दर्द से राहत नहीं देती, उनसे लड़ने का हौसला देती है। जॉन के पास किसी बात का जवाब नहीं है, और यक़ीनन इसलिए वो लाजवाब शायर हैं।
“तू भी चुप है मैं भी चुप हूं यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है…
हम दोनों मिलकर भी दिलों कि तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तूने कैसी शक्ल बनाई है”
मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि ये शेर जॉन एलिया के हैं, या इन्हीं अशरार ने जॉन को जॉन एलिया बनाया। यह कैसा शायर है! कितना अनरोमेंटिक! जो यह कह रहा है कि
‘हम दोनों मिलकर भी दिलों कि तन्हाई में भटकेंगे’
जो यह जनता है कि
‘तेरे साथ तेरी याद आई’
फिर भी पूछ रहा है
‘क्या तू सचमुच आई है’….
क्या कॉम्प्लेक्स है, कैसी उलझन है ? रिवाज़ के मुताबिक आमतौर से शायरी में शायर या तो दुनिया को अपने प्रेम के दुखड़े सुनाता है या फिर अपने महबूब की तारीफ करता है… लेकिन अपने beloved के existence पर सवाल? यह तो कोई फ्रेंज काफ्का जैसा दार्शनिक कर सकता है या फिर जॉन एलिया। कहा जाता है काफ्का को उम्र भर हल्का-हल्का बुखार रहा…
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)




